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________________ -१३८ ] मुकन्दका केख १० रे तत्पादपद्मोपजीवि ॥ वृसं । विनयक्काधारभूतं पविहितचरितक्काश्रयं स विवेकक्के निवास ९१ ११ संपत्तिगे, कुलमवनं सन्ततानूनदानक्के निधानं मान्तनक्कागरमेने नेगलदं सवचोभूषणं भूविनु (सं) (बे ) १२ देवनुद्यद्विधुविशदयशोव्याप्त दिक्चक्रवालं १२ ईव गुणं गुणं पतिहिताचरितं चरितं परोप ( का ) १३ रावसथार्थमर्थमत्र भिज्जिनतत्वमे तत्वमें सद्भावने तम्मोलोन्दि नेलेवेत्तिरे कीतिंगे नोन्तरिन्तु १४ बेल्देवनुमोल्पनाब्द बलदेवनुमंकद शान्तिवर्मनुं ॥ (३) वचनं ॥ अन्तु सकलगुणगणोतुंगरुं जिनधर्म १५ निर्मलरुं निखिलजनोपकारनिरतरुमुदात्तकीर्तिलता निकेतनरुम गलदेवप्रियतनूभवरुं गोजि १६ काम्बिका कृशोदर्शन बिडनिबद्ध पट्टरुमागि पोगल्तेवेत्त तत्सहोदरत्रयदोल अग्रभवनप्प सन्धिविग्र १७ हाधिकारि ॥ वृत्तं । जिनपादांबुजभृंगनंगजनिभं गम्यार्थरत्नाकरं मनुमार्ग विनयार्णवं कलिमल प्रध्वंस १८ कं केशिराजन बंटिं नयसेन सूरिपदपद्माराधनारत चित्तनुदात्तं नेगल्द विवेक - महोभाग १९ दोलू ॥ ४ आ महानुभावं धर्मप्रभाव प्रकटीकृत चित्तनागे ॥ कन्दं । सिन्द - कनबलानन्दन कररू २० पनसमसाइसनिलयं सिन्दनृपनन्दनं लसदिन्दुकरप्रतिमकीर्तिकान्ताकान्तं ॥ ५ जिनधर्मनिमलं सत्य निधा २१ नननूनदान - अनन्दिन कंचरलं पंचेषुनिमं मुल् गुन्दसिन्ददेशलकामं ॥ ६ एंब पेंपिंग जसक्कमागरमा
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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