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________________ जी जैनशिलालेख-संग्रह [ ९७ ४७ (पु)हिदनुदात्तसस्वं नेट्टने विबु ४८ धेन्द्रवन्धनरिविंगोजम् ॥(०) ४९ तानरिदु तो(र)दु नेट्टने मानि- ५० सवालावुर्देदु संन्यासनदोक् । ५१ मानसिके गिडदे कोण्डो(न)नून- ५२ सुखास्पदमनलतियोल श्रीविजयं ।।(८) ५३ निर्गतमय नीनर(सं)सर्ग- ५४ म नानोल्लेनेन्दु पेसि विसु५५ वं । सगंद मोगमनुण्डपत्र- ५६ रोक्कडियिट्टोनरिदोननुप५७ मकवियं ॥(९)दण्डिन साम ५८ ग्रिगे परमण्डलमल्लाडे ५९ (स)वविक्रमतुंगं । दण्डिन बी- ६० रश्रीगोलगण्डं श्रादण्डनायकं ६५ श्रीविजयं ।।(१०) (च)ण्डपराक्र ६२ मनुरदरिमण्डलिकरनहि पि६३ डिदु पतिगोप्पिमुधोलगण्ड प्रच-६४ ण्डनीमूमण्डल दोल दण्डनायकं ६५ श्रीविजयं ।।(११) अनुपम- ६६ कविय सेनबोवं गु६७ णवर्म बरेदं ॥ [ यह शिलालेख दण्डनायक श्रीविजयकी प्रशंसामें लिखा गया है। अरिकिंगोज, अनुपमकवि तथा सर्वविक्रमतुंग ये इसके विरुद थे। यह बलिकुलमै उत्पन्न हुआ था तथा इन्द्र राजकी सेनाका पराक्रमी सेनापति था। इन्द्रराज ( तृतीय ) ही सम्भवतः यहाँ उल्लिखित है जिसका राज्य सन् ९१४ से ९२२ तक था। लेखके तीसरे भागमें कहा है कि श्रीविजयने समस्त वैभव छोड़कर संन्यास धारण किया था। यह लेख श्रीविजयके सेवक गुणवर्माने लिखा था।] [ए० इं० १० पृ० १४७ ] चोलवाण्डिपुरम् ( दक्षिण अर्काट, मद्रास ) १०वीं सदी, तमिल [ यह लेख राजा गण्डरादित्य मुम्मुडि चोलके दूसरे वर्षका है। इसमें चेदि सिद्धवडवन् नामक शासकको प्रशंसा है। उसे कोवलका स्वामी तथा
SR No.010113
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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