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________________ २२४ का महासामन्त था । श्रवणबेलगोला से प्राप्त ले० नं० १५२ ( प्रथम भाग, ३८) और १६५ ( प्रथम भाग १०६ ) में इसकी अनेक विजयों का वर्णन किया यया है । ले० नं० १५५ (प्रथम भाग, ६१ ) में वर्णित अनेक विजयों का श्रेय राख मारसिंह को दिया गया है पर उक्त लेख के कथन को ले० नं० १६५ और वामुड पुराण के सहारे पढ़ने से वास्तविकता समझ में श्रा जाती है। रात्रमक्ष को 'जगदेकवीर' उपाधि सूचित करती है कि ये सब विजयें उसके राज्य में सम्पन्न हो सकी थीं । मारसिंह और राचमल्ल ने ये सब युद्ध अपने श्रधिराट् राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय और इन्द्र चतुर्थ के लिए सेनापति चामुण्ड राय के द्वारा जीते थे । 1 उपर्युक्त लेखों में चामुण्डराय की शूरवीरता को सूचित करने वाली अनेक उपाधियाँ दी गई है । खेद है कि ले० नं० १६५ छः पद्यों के बाद अकस्मात् समाप्त हो जाता है जिससे हमें उसके सम्बन्ध की पूरी जानकारी नहीं हो पाती । उसके जीवन के अन्य पहलुओं को उसकी श्रमरकृति चामुण्डराय पुराण और उसके प्राचार्यों के ग्रन्थों से जाना जा सकता है । उसकी भ्रमर कीर्ति की प्रतीक श्रवणवेल्गोल में बाहुबलि की जगद्विख्यात एक विशाल मूर्ति (५७ फुट ऊँची ) प्रतिष्ठित है । इस मूर्ति के निर्माण का ले० नं० ३६५ में वर्णित है जिसका कि अन्यत्र उल्लेख किया गया' है । चामुण्डराय के दो गुरु थे एक का नाम था अजितसेन और दूसरे का नाम नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती । श्रवण वेल्गोल के एक लेख ( प्रथम भाग, १२२ ) से ज्ञात होता है कि इस सेनापति ने चिक बेट्ट पर एक बसदि बनवाई थी तथा ० नं० १५७ ( प्रथम भाग, ६७ ) से ज्ञात होता है कि उसके पुत्र जिनदेवगण ने भी जो कि जितसेन मुनि का शिष्य था, एक बसदि बनवाई थी । चामुण्डराय की जैन धर्म के प्रति की गई सेवाओं की छाप दक्षिण भारत में १. देखो, 'जैनधर्म के केन्द्र' प्रकरण |
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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