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________________ १.२ की गई है और अनेकों उपाधियाँ दी गई है। लेख नं० २३३' से, जो कि एरेयंग के राज्यकाल का ही है, शात होता है कि वह गंग मण्डल पर राज्य करता था। उसने अपने गुरु जैनतार्किक गोपनन्दि को अवणवेल्गोल की वसदियों के जीर्णोबार के हेतु कुछ प्राम दान में दिये थे। इतिहासज्ञों का अन्य लेखों के आधार पर विश्वास है कि एरेयंग अपने अन्तिम दिनों तक युवराज वना रहा और उसका वृद्ध पिता विनयादित्य गद्दी पर बैठा रहा। होय्सल वंश में एरे यंग प्रथम व्यक्ति था जिसने वीर गङ्ग उपाधि धारण की। पीछे इसके उत्तराधिकारियों में यह उपाधि बड़ी प्रिय समझी गई। लेख नं० २६५ से ज्ञात होता है कि एरेयङ्ग की रानी एचलदेवी से बल्लाल, विष्णुवर्धन ( विट्रिग ) एवं उदयादित्य नामक तीन पुत्र हुए । लेख नं० २६६ में इसके एक दामाद का उल्लेख है जिसका नाम हेम्माडिदेव था, यह गंगवंशोत्पन एवं जैन धर्मानुयायी था। लेख नं० २१८ के अनुसार मालुम होता है कि उसके ज्येष्ठ पुत्र बल्लाल ने कुछ समय के लिए शासन किया था यद्यपि उक्त लेख का शक संवत् १००० सन्देहास्पद है। इस लेख में बल्लाल के शौर्य की प्रशंसा भी है । लेखन० ५६६ तथा ६२५ २ से ज्ञात होता है कि उसके जैन गुरु चांरुकीर्ति मुनि थे जिन्होंने इसे असाध्य बीमारी से बचाया था। बल्लाल का शासन काल सन् २१०० से ११०६ ईस्वी तक माना जाता है। बलाल का उत्तराधिकारी उसका भाई विष्णुवर्धन हुआ। यह इस वंश का सबसे बड़ा प्रतापी राजा था। इस राजा ने कर्नाटक देश को चोल आधिपत्य से मुक्त किया था। इस संग्रह में उसके राज्य के अनेकों लेख संग्रहीत हैं । लेख १. वही-ले० नं० ४६२ । २. वही-ले० नं. १०५, १०८
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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