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________________ लेखन०६६७ में जैनधर्म की प्रभावना करने वाले अनेकों प्राचार्यों का नाम शुरू में दिया गया है जो कि विभिन्न संघों एवं गणों से सम्बन्धित हैं। सिंहकीर्ति से पहले धर्मभूषण तृतीय का भी उल्लेख है पर उन दोनों के बीच कोई सम्बन्ध का निर्देश नहीं है। हो सकता है कि ये सिंहकीर्ति, धर्मभूषण तृतीय से जुदी किसी और गुरुपरम्परा के हों। उन्होंने दिल्ली के बादशाह मुहम्मद सुरित्राण की सभा में बौद्धादि वादियों को जीता था । इस बादशाह का समय सन् १३२६ से १३३७ तक था। मेरुनन्दि आदि के विषय में हमें कुछ नहीं मालुम । विशाल कीर्ति ने विजयनगर नरेश विरूपाक्ष के दरबार में विजय पत्र प्राप्त किया था तथा सिकन्दर सुरित्राण ( सुल्तान सिकन्दर सूर सन् १५५४ ई.) के दरवार में विरोधियों को जीता था। इससे विशालकीर्ति का ८०-६० वर्ष का दीर्घ जीवन मालुम होता है। विद्यानंद की उपाधि वादी थी इन्होंने अनेकों दरबारों में विरोधियों को वाद में परास्त किया था। इनकी अनेक यशस्वी विजयों का वर्णन लेख में दिया गया है। इसी तरह उनके शिष्य देवेन्द्रकीर्ति थे | लेख में तिथिका निर्देश नहीं है तथा वर्णन व्यतिक्रम से प्राचार्यपरम्परा ठीक नहीं मालुम हो पाती। लेख नं० ६१७ में उत्तर भारत में बलात्कार गण के मदसारद गच्छ की गुरुपरम्परा दी गई है वह निम्न प्रकार है धर्म चन्द्र रत्न कीर्ति प्रभा चन्द्र पद्मनन्दि शुभचन्द्र १. जैन एन्टोक्वेरी भाग ४ पृ०१-२१ तथा मेमेवल जैनिज्म, पृष्ठ ३७१-३७५ ।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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