SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 549
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८२ जैन-शिलालेख-संग्रह श्री चन्द्रप्रभ-तीत्थकृद्विजयदेवज्वालनीदेविकाबिम्बानां ... ... पुनर्नवलसच्चित्रान्वितां शोभनाम् । प्राप्ताश्चर्यरसामकारयदपि श्रेष्ठा प्रतिष्ठा पुनः ... ... ... शुभ ... ... नाट-गुरुणा वक्तं यथैवन्मनः॥ श्री मङ्गलं भवतु । वर्द्धतां जिन-शासनम् । [चन्द्रप्रभ-जिनेन्द्रको नमस्कार । जिन-शासनकी प्रशंसा । कर्नाटक देशके महिसूर नामक नगरमें राना चामराजका पुत्र राजा कृष्णराज रत्ननटित सिंहासनपर बैठा । वह दुष्टोका निग्रह और शिष्टोंका पालन करता था। (उसकी प्रशंसा) उसने शान्त-पण्डितके पुत्र श्रीवत्स-गोत्रीय.......बके प्रार्थना-पत्रसे केलसुरके चैत्यालय में फिरसे तीर्थकर चन्द्रप्रभ, विजय-देव तथा ज्वालिनी-देविकाके बिम्बों ( प्रतिमाओं) को स्थापित करवाया। चैत्यालयको भी सुधरवाकर उसको फिरसे चित्रित किया था।] [ EC, IV, Gundlupet tl., No. 18 ] ७५९-७६३ शत्रुञ्जय--प्राकृत। [सं० १८८५ से १८८६ सक= १८२८ से १८२६ वक] श्वेताम्बर लेख। ७६४ नरसीपुर;-संस्कृत तथा कमर। [झक १७११८२६ ई.] [मरसीपुर ( नेम्मनहल्लि परगना ) में, शान्तय्यके खेतमें एक पाषाणपर ] भी दे शुभमस्तु ।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy