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________________ ५०० जैन-शिलालेख-संग्रह अमृत-पडि चातुव्वर्णद दान तदर्थवागि तगडूर प्रभुगळु एनेगे दानार्थवागि कोट क्षेत्रद स्थान-निर्देशद विवर । अरिन्द नैऋत्य-दिकिनल्लि विभूतिय लिङ्गप्पयगळ गद्दे होल ग ३० तेङ्कलु विभूति-नञ्जप्पन होल तोटदि पडुवलु येरे-होलक्के होह वोणियिं बडगलु शिवनैय्यन अडविं मूडण चतुस्सीमेयोळगाट स्थळ होल गद्दे अडके. तेङ्ग-एलेय-तोट ओळगाद क्षेत्रद सर्व मान्यवनू स्त्री-पुत्र-ज्ञाति-सापत्न-दायादाद्यनुमति पुरस्सरवागि आदीश्वरगे एनेगे धमर्थिवागि त्रिवाचा कोहेनु । ( हमेशाकी तरह अन्तिम श्लोक ) • [हरवे के देवप्पके पुत्र चन्दप्पने, हरवे बस्तिके अपने कुल-देवता आदिपरमेश्वरकी पूजा का प्रबन्ध करने, तथा चतुर्वर्णको दान देने के लिये, तगडूरके सरदारों के द्वारा दी गयी भूमिका, सूखे खेतों, धान्यके खेतों, सुपारी, नारियल और पानके उद्यानों सहित-जो कि इस भूमिमें लगे हुए थे, दान किया । यह दान उसने अपनी स्त्री-पुत्र-ज्ञाति-सौतेली स्त्रियोंके पुत्रों और दायादों (उत्तराधिकारियों ) की अनुमतिसे किया था। [EC, IV, Chamarajnagar tl., No., 189 ] चित्तौड़-संस्कृत । [सं० १९४३ तथा शक ११०८= १४८६ ई. ] [गोमुखके पासके जैन-मन्दिरका लेख जो कि एक चट्टानपर है, जिसमें ३ प्रतिमायें उत्कीर्ण है।] (१)॥ (चिह्न) ॥ संवत् १५४३ वर्षे शाके १४०८ प्र० मार्य( 1 ) शीर्ष वदि १३ तिथौ गुरु-दिने । श्री-चित्रकूट-महा-दुर्गे । श्री-रायमल्ल-राजेन्द्र-विजे (ब) य-राज्ये । सकल-श्री-सङ्घन । स-तीर्थ । श्री-स (सु)कोशलेश प्रतिमा कारिता । प्रतिष्टि(२) ता । श्री-खरतरगच्छे । श्री जिनसमुद्र-सूरिभि (भः) ।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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