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________________ जैन-शिलालेल-सार है। वे सफेद संगमरमरके पत्थर की बनी हुई हैं और अच्छी तरह सुरक्षित दशामें है। उनकी बनावट कुछ भद्दी है। तीर्थङ्कके नाम तो नहीं प्रकट किये गये हैं, पर चिह्नोंसे उन्हें मालूम किया जा सकता है । वे निम्नलिखित भाँति है :१. पानाय (२८ इचx २३ इञ्च) सप्तफणी सर्प सिर के ऊपर है, और सर्प चिह्न के तौरपर है। २. सुपार्श्वनाथ ( करीब २२४ १८ इन्च). पञ्च-फणी सर्प सिर के ऊपर । स्वस्तिक चिह्न । ३. महावीरनाथ ( करीब २२४१८ इञ्ज), सिंह का चिह्न है। ४. नेमिनाथ ( करीब १६४१५ इञ्च) शंख का चिह्न है। ५. अजितनाथ (करीब २१४१७ इञ्च ), हाथी का चिह्न है । ६. मल्लिनाथ ( करीब २१४१७ इञ्च ) कलश का चिह्न । ७. श्रेयान्सप्रभु ( करीब २१ x १७ इञ्च ) गेडे का चिह्न है । ८. सुविधिनाय (करीब २१x१७ इञ्च ), मछली का चिह्न । ६. सुमतिनाथ (करीब १८x१७ इञ्च ) चकवे का चिह्न । १०. पद्मप्रभ ( करीब १६४१३ इञ्च), कमल का चिह्न । ११. शान्तिनाथ ( करीब १६४१३ इञ्च), कच्छप ( कछुआ) का चिह्न । इन प्रतिमाओं के नीचे के पाषाणपर लेख है जो कि प्रायः मिलते-जुलते हैं और देवनागरी लिपि में भद्दे रूप से अशुद्ध संस्कृतमें लिखे हुए हैं। सबका काल संवत् १५१०, माघ शुक्का दशमी, तदनुसार रविवार १६ फरवरो,१४५३ ये सब प्रतिमाएँ जैनोंके दिगम्बर सम्प्रदाय की हैं । यह इस बात से प्रमाणित होता है कि सब के ऊपर 'मूलसंघ' लिखा हुआ है और सब नग्न है। लेखों के अनुसार, इन सबकी प्रतिष्ठा बापू नाम के एक धनिक, तथा उसके पुत्र खाल्हा और पाल्हा और उनकी क्रमशः सचिमणा, सुहागिनी (सुगनमी भी कहते
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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