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________________ जैन - शिलालेख - संग्रह स्थान में थे: - जब वह देव राय राज्य की रक्षा करने में प्रसन्न था - प्रधान मन्त्री के पदको सुशोभित करते हुए, जिन-समय रूपी समुद्र के बढ़ाने के लिये पूर्ण चन्द्र ऐसा गोप- चमूप महान् निडुगळ् किले पर शासन कर रहा था । ] [ EC, XI, Hiriyur tl. No 28 ] ४४८ ६१० भारङ्गी; - संस्कृत तथा कचड़ । [ शक १३३७ = १४१५ ई० ] [ भारङ्गीमें, कल्लेश्वर- वस्तिके पाषाणपर ] खण्डितानङ्ग-राजस् स्तुत -हित-जिन - राजः प्राप्त सत्-पाद- पूनः । धृत- सगुण- समाजो वादिनं वादि ... ... राजोऽभून्नताशेष-राजः ॥ सरसि च सित - सरसिजमिव गगने विधुरिव हरिरिव हर-हसनम् । sa हलधर - रुचिरिव विलस ... मुनि-पति-वर - विशद - यशः ॥ तच्छिष्यो जयकीर्त्ति - नाम - मुनिपस्तत्पाद सेवा- रतः । सिद्धान्त व्रतीपो नताखिल-नृपस्सिद्धान्त - पारङ्गतः । तच्छिष्योत्तम - बुळ्ळ- गौड-तनुजः श्री - गोपिनाथोऽभवत् तच्छिष्यः स्वयमप्यभूत् स्व-जननी श्री माळि - गाघुण्ड्यपी ॥ क्रमदिन्दी येल्लर गुणस्तुति येन्तेन्दो डे 11 शेषोऽप्यस्तु सहस्र - रम्य - रसनस्स्तोत्रे समर्थो हि यो भूयो या धिषणा [ - ] श्री शारदाप्वस्तु सा । सोऽप्यस्त्वत्र गुरुर्गुरुस्मुर-ततेश्शुद्ध-बुध्या गुरुर् ...
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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