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________________ Y . जैन-शिलालेख-संग्रह पुण्यदनपवाकम् । बण्णिसली-हारुख-गौण्डगेयार घरेयोळ ॥ नोडिदडे मदन-सन्निम। रूढियोतिकोत्ति वेत्त सजन पुरु पम् । पाडरिदं हारुव-गौण्डम् । बेडिदवरिगन-होन्नु-वस्त्रवनीवम् ॥ जिनर नुडि विनर भावने । जिन-बिम्बकल्ददन्य-देय्वक्केरगम् । चिन-पद-नदिन-भ्रमरम् । जिन-धम्मोद्धार हरुव-गोण्डनुदारम् ॥ मंगल महा श्री श्री श्री ॥ [जिन शासनकी प्रशंसा । स्वस्ति । जिस समय, ( अपने पदों सहित ), वीर-हरिहर गयके पुत्र देव-राय पृथ्वीका राज्य कर रहे थे :-( उक्त मितिको ) हिरि-आवलिमें, बो कि जिड्डुलिगे-नाका मुख्य ग्राम है, शासक महाप्रभु रामगौण्डका पुत्र स्वर्गको गया। ___आगेके श्लोक बताते हैं कि उसके पुरोहित मुनिभद्र-देव थे, और उसके ज्येष्ठ भाई गोप्यण, तथा उसकी उदारता और बिनभक्तिको भी प्रशंसा की गयी है। [ EC, VIII, Sorab tl., No. 107 ] ६०५ कुप्पुद्धरु-संस्कृत तथा काद। [शक १९३० १४०८ ई.] [प्पद में, जिन-बस्ति के उत्तर-पश्चिमकी मोर के पाषाण पर] श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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