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________________ जैन - शिलालेख - संग्रह ५८१ तिरुप्परुचिक्कुणूरु ( काञ्जीवरम् के निकट ) - वामिह । ( दुडुभि वर्ष = १३८२ ई० (हुआ) ] १—स्वस्ति श्रीः [ ।। ] तुन्दुभिवर्षं कान्तिगै मादत्ति । पूर्व्व-पत्तुतिङ्गत्-किळ - मै पौर्णे पेरताकात्ति २--नाळ् महामण्डलेश्वरन् मरिहरराज कुमारन् श्रीमद्- बुक्कराजन् धर्म आग वैचय- दण्डनाथ- पुत्रन् ३- जैनोत्तमन् इरुगप् [ प ]- महाप्रधानि ति [ रुप] व्यरुत्तिक्कुरू-नायनार त्रैलोक्य वल्लभकु पूजैक्कु ४- शालैक्कु तिरुप्पणिम् [कु] म् मावण्डूर्यब्लि महेन्द्रमङ्गलं नापकैल्लैयुं इटै-इलि पक्षिच्छन्दभाग चन्द्रादित्यवरैयुं नडक्कत्तरुवित्तार धर्मोयं जयतु [ काञ्जीवरम् के निकट तिरुप्परुत्तिक्कुण्डमें वर्धमान जिनमन्दिरके भण्डारकी उत्तर तरफकी दीवालपर नीचे की ओर यह तामिल तथा ग्रन्थ लेख उत्कीर्ण है । इसमें बताया गया है कि वैचय दण्डनाथ ( सेनापति ) का पुत्र इरुगप्प महामन्त्रीने मावण्डूर तालुकेका महेन्द्रमङ्गलं गाँव जैनमन्दिरको दानमें दे दिबा था | उसने यह दान हरिहर द्वितीय के पुत्र अरिहरराज, अर्थात् बुक द्वितीय, के पुत्र बुक्कराज के गुणके कारण किया था । अतः दुन्दुभिवर्ष, जिसमें दान किया गया था, १३८२ ई० से मिलना चाहिये । ] [ EI, VII, No. 16 A. ]
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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