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________________ ऊद्रिके लेख ४१३ बरे बैचप्पनुदार-चारु-जिन-पदाम्भोज-सक्तं मनो-। हर रूपं वर-धात्रियोळ् मडिदु नाक-क्षेत्रमं पोर्दिदम् ।। [वैचप्पने किस तरह जिन चरणों का आश्रय लिया,इसका इस लेखमें वर्णनहै । भरत क्षेत्र-कुन्तलदेश-बनवसे १२०००-१८ कम्पण-उद्धरे-और उसमें बैचप्पका वर्णन | बुक्कराजके पुत्र हरिहर-राय विजयनगरीमें राज्य कर रहे थे। कोकणदेशसे लड़ाई का वर्णन । उसमें बैचप्प की जीत हुई।] [ EC, VIII, Sorab tl.,:No. 152 ] ५८० मलेयूर-कामद। [विना कार निर्देशका, पर लगभग १३८० ई.] [उसी पर्वतपर, पार्श्वनाथ बस्तिके प्राङ्गणमें दक्षिणकी मोरके पाषाणपर] बाहुबलि-पण्डितदेवरु । नयकोर्णि-प्रति-नन्दनं सकळविद्याचक्रवाहयं द्वय-भाषा-कविता-त्रिणेत्रनुरु-होरा-शास्त्र-सर्वतकम् । नययुक्तमवर-मूल-सङ्घदोडेयं देशी-गणाग्रेसरं । प्रियदं पोस्लुक ( पुस्तक ) गच्छ-पूर्ण-तिलकं श्रीकोण्डकुन्दान्वयं ॥ [बाहुबलि-पण्डित देव-नयकीर्ति-व्रतीके पुत्र, सकलविद्याचक्रवर्ती, दयभाषा कवितात्रिनेत्र, होराशास्त्रसर्वज्ञ, नययुक्त मूलरंघाधिपति, देशीगणाग्रेसर, पोस्तुक गच्छके पूर्ण तिलक और कोण्डकुन्दान्वयी थे। [ EC, IV, Chamarajnagar tl., No. 157 ]
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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