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________________ ३८ '' ११-१२ वीं शताब्दी में इस संघ के मुनियों की गद्दियाँ कोङ्गाल्व राज्य के मुल्लूर तथा शान्तर राजाओं की राजधानी हुम्मच में थीं। हुम्मच से प्राप्त लेख नं० २१३-२१६ में इस संघ के अनेकों श्राचार्यों का परिचय मिलता है । इनमें श्रेयांस पण्डित, उनके सधर्मा कमलभद्र और वादीभसिंह जितसेन पण्डित के पूर्ववर्ती और समकालीन प्राचार्यों की परम्परा दी गई है। जो इस प्रकार है: मौनिदेव 1 विमलचन्द्र भट्टारक 1 कनकसेन वादिराज ( हेमसेन ) दयापाल पुष्पसेन (रूपसिद्धि के कर्ता) | गुणसेन श्रेयांसदेव श्रनितसेन कुमारसेन ( वादीभसिंह ) इनमें मौनिदेव और विमलचन्द्र भट्टारक वे ही मालुम होते हैं जिनका उल्लेख गदि से प्राप्त लेख नं० १६६ ( लगभग ६६० ई० ) में द्रविड़ संघ कुन्दकुन्दान्वय के प्राचार्य के रूप में किया गया गया है। शायद ये ही द्रविड़ संघ के श्रादि प्रवर्तक श्राचार्य रहे हों । कनकसेन वादिराज का दूसरा नाम लेख नं० २१३ और २१५ में हेमसेन दिया गया है । संस्कृत में कनक और हेम का अर्थ भी एक होता है। गुरु के रूप में कहा गया है। इन्हें श्रीविजय, वादिराज, दयापाल यादि के वादिराज की उपाधियाँ षट्तर्कभयमुख श्रीर वादिराज श्रीविजय ( पण्डित पारिजात ) ( षट्तर्कपरमुख, जगदेकमल्लवादि ) कमलभद्र
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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