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________________ हीरेहल्लिके लेख ३४७ कोण्डलियशेष महावनङ्गळु आदि-गौण्डनु माडि कोटक मङ्गल महा भी (हमेशा का अन्तिम श्लोक) नमोऽस्तु वीतरागाय ।। [ इस लेखमें आदि-गवुण्डने अपने गुरु पेरुमाळे-देवके लिये एक विशाल बसदि बनवायी और उसके लिये (उक्त) कुछ भूमिका दान दिया, और ( उक्त मितिको ) आदि-गवुण्ड, और उसके पुत्रों तथा गाँवके ४० कुटुम्बोंके साथ कोण्डलिके सारे ब्राह्मणोंने उस भूमि तथा मन्दिरको पेरुमाले-देवको समर्पण कर दिया।] [ EC, V, Belur tl., No. 138. ] ४६७ हुम्मच, संस्कृत तथा कद-भग्न । [शक ११७२% १२५० ई०] [पभावती मन्दिर में, एक पाषाण पर ] बरमसेन... नाय "स्वस्ति श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनम् ॥ स्वस्ति श्रीमत्-स (श)क- वर्ष १९७२ नेय कीलक-संवत्सरद शुद्धभावण-दशमी-शुक्रबारदन्दु श्रीमन्महामण्डलेश्वर श्री-ब्रह्मा-भूपालकन सचि ... . ... ... ... ... .... ... ... ... ब्रह्मय-सेनबोवन प्रिय-पुत्र पारर्व-सेमचोर ... ... ... ... ... ... माडि ... .. ... ... ... . ... ... सुर-लोक-प्रापितनादम् श्री ( बाकीका पढ़ा नहीं जा सकता है)। [ महा-मण्डलेश्वरब्रह्म-भूपालके मन्त्री ... ... .. ब्रह्मय्य-सेनबोवके प्रिय पुत्र पार्श्व-सेनबोवने 'समाधि' की विधिसे स्वर्गलोक प्राप्त किया।] [ Ec, VIII, Nagar tl, No. 58]
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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