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________________ माण्टनीडु गल्नुके लेख टाकट दक्षिण-शिलाग्रदोळ् पाश्र्व-जिन ।। न्याकोसि-बसतियं प्रिय -1 लोक गङ्गेयन मारनिदनेत्तिसिदम् ।। इदु जोगवट्टिगेय बस। दि दला-चन्द्राकविं सनातमविं सल -1 वुदु पञ्च-महा-शब्दवद् । इदकें पालिसुवरिनसङ्ख्यातळ् ॥ स्वस्ति निरस्ततम-कमठानेक-वैकुणिनप्प पार्श्व-जिनेश्वरन दैनन्दिन-सपाकार्यकं महाभिषेककं चातुर्वर्ण-दानक्कं गङ्गायन मारेयर्नु नारि वाचलेयुवाचन्द्र-तारमिनित्तने सलुपुदेन्दो डिरहोळ-देवं धारा-पूर्वकवित्त दत्ति ( दानको विगत तथा वे ही अन्तिम वाक्य और श्लोक )। (प्रथम लेख) [स्वस्ति । ( उक्त मिति को ), नेमि-पण्डितके पुत्रने इस क्सदि की भूमि प्राप्त की। (द्वितीय लेख) जिन शासनकी प्रशंसा। स्वस्ति । चोळ राजाओंमें, मङ्गि-नृपका पुत्र बप्पि-नृप, (और ) गोविन्दरका पुत्र इरुङ्गोळ हुआ, जिसके भोग-नृपका जन्म हुआ था, जिसके बम्म-नृप हुआ। जिससे और बाचल-देवीसे इरुगोळ (प्रशंसा सहित ) उत्पन हुआ था। बब (अपने पदों सहित ), इरुङ्गोळ-देव राज्य कर रहा था. तत्पादपमोपजीवी गड्यन-भारेय गङ्गेय-नायक और चामासे उत्पन्न हुआ था। इसने नेमि-पण्डितसे व्रत लिये थे। ने. प. को पद्मप्रभ-मलपारि-देवसे मनोभिलषित अर्थकी प्राप्ति हुई थी। प० म० देव श्रीमूलसंघ, देशिप-गण, कोण्डकुन्दान्वय, पुस्तक-गच्छ तथा वाणद-बलियके बीरनन्दि-सिद्धान्त-चक्रवर्तीके शिष्य थे।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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