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________________ ३१८ जैन-शिलालेख-संग्रह ४६८ दानसाले-संस्कृत तथा कसद-भग्न । १८०? -[.. ... =लगभग १२२०.] [दानसालेमें, उत्तरको ओर, बस्तिके पासके एक समाधि-पाषाणपर]. श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् ।। बीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। नमो अरिहन्ताण ।। स्वस्ति श्रीमतु शक वर्ष ११४ .. नेय सावधारिसंवत्सरद काचिक-सुद्ध १० सोमवारदन्दु श्रीमन्महामण्डलेश्वरं कलिगणंकुस मण्डळ-महीपालन सर्वाधिकारि-पद्मप्रम-देवर गुड्ड वैजण-सेनबोवन पुत्र बह-सेनबोवन तम्मचळिग-सेनबोषनु निनायु...'' सानमनषिदु ।। पोरेदा ... ... ... अगे पर-मण्हळद महीपाळभिप्राय (२ पंक्तियां नष्ट हो गई है ) सुखदिं वैवण-सेनबोव ।। तनुजातं ... ... ... कादम्बलिग यिन्ती ... ... ... सहितं मन्त्रि ... ... .... दियकोगेद ... ... .. (बिन शासनकी प्रशंसा। स्वस्ति । ( उक्त मितिको ), चलिग-सेनबोव,-जो वैवण-सेनबोक्के पुत्र बरल-सेनबोक्का छोटा भाई और महामण्डलेश्वर मडल-महिपालका सर्वाधिकारी पद्मप्रभ-देवका गृहस्थ-शिष्य था,-अपना अन्त समीप बानकर, ... ...... ..."कादम्बलिगमें .......... स्वर्गको गया। [EC, VIII, Tithahalli tl., No. 191.] ४६९ पुरले,कार। -वर्ष विजय [१२१०ई० ? (ल. राइस)।] त्य, पब सेट्टिके सेतो स्तम्मपर]
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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