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________________ Ge पूर्व १५० से लेकर ईसा की प्रथम शताब्दी के बीच का सिद्ध किया है। में १७ से ८६ तक के लेख कुपारणकालीन हैं जिनमें कुछेक पर सम्राट् कनिष्क, हुविष्क एवं वासुदेव के राज्यसंवत्सर दिये गये हैं और कुछेक बिना संवत्सर के है । शेष लेख गुप्तकाल से लेकर ११वीं शताब्दी तक के हैं। इनमें से ८ लेख तो श्रायागपटों' पर, २ लेख ध्वज स्तम्भों पर, ३ लेख तोरणों पर, १ लेख नैगमेव ( यक्ष प्रतिमा ) पर, १ लेख सरस्वती" की मूर्ति पर, ५. लेख सर्वतोभद्र प्रतिमाओं पर, और शे लेख प्रतिमापट्ट या मूर्तियो की चौकियों पर उत्कीर्ण मिले हैं । उक्त तथा अन्य मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त हुई थी। इस टीले पर कंकाली देवी का एक मन्दिर है । मन्दिर भी एक छोटी-सी झोपड़ी के रूप में हैं, जिसमें नक्काशीदार एक स्तम्भ का टुकड़ा रखा गया है, जिसे लोग कंकाली देवी मानकर पूजते हैं। इस तरह देवी के नाम से इस टीले का नाम कंकाली पड़ गया । इसकी सर्व प्रथम खुदाई सन् १८७१ में जनरल कनिंघम ने की थी जिसमें उन्हें तीर्थंकरों की अनेक मूर्तियां मिलीं जिनमें कुछ पर कुषाण वंशी प्रतापी सम्राट् कनिष्क के ५ वें वर्ष से लेकर वासुदेव के राज्य के कुषाण संवत् ६८ तक के लेख खुदे । दूसरी खुदाई सन् १८६८-६१ में डा० फ्यूरर ने विस्तृत रूप से की जिससे ७३७ मूर्तियाँ तथा अन्य शिल्पसामग्री प्राप्त हुई । उसके पश्चात् पं० राधाकृष्ण ने भी यहाँ की खुदाई की और अनेक महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त की । इस तरह कंकाली टीला जैन सामग्री के लिए एक निधान सिद्ध हुआ । यहाँ से अनेक १–नं० ५,८,६,१५,१७,७१,७३,८१ २ नं० ४३,४४ ३ - नं० ४,१४,६८ ४- नं० १३ ५नं० ५५ ६- नं० २२,२६,२७,४१,१७३
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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