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________________ चक्रवती की शिष्या (भाविक ) बक्कव्वेने, बहुत हर्षके साथ भगवान् चेन्नपार्श्वनाथकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करबाके,-अष्टविध पूचनको चालू रखने, उसके ऊँचे मन्दिरकी मरम्मत आदिके लिये, और ऋषियोंको आहार-दान देनेके लिये, हेरगके सरदारोंकी उपस्थितिमें, महामण्डलेश्वर नारसिंह-देवसे प्रार्थना करके, (निर्दिष्ट) भूमिका दान दिया।] [EC, V, Hassan TI., No. 67.] ३४० खजुराहो-संस्कृत। [सं० १९=१५ ई.] [इस शिलालेखके भी लेखका पता नहीं है। श्री वीरनाथ ( महावीर स्वामी ) की प्रतिमाके चरण-पाषाणमें यह लेख अङ्कित है। शिल्पीका नाम कुमार सिंह ( या सिनहा ) लिखा हुआ है । ] [ A. Cunaingham, Reports; XXI, P. 68, P. A.) ३४१ महोबा-संस्कृत । [सं० २३= १९६ई.] "संवत् १२१३, माघ सुदि ५ गुरन् (गुरौ)" इस प्रतिमा पर चकोरका चिह्न है, इससे यह प्रतिमा सुमतिनाथकी है । लेख एक ही लम्बी पंक्तिका है। सबसे पहले उक्त कालका उल्लेख है। इसमें किसी राबाका नाम नहीं दिया हुआ है, और इसके अन्तम शिल्पी रूकार (रूपकार) बालनका नाम आता है। [ A. Cunningham, Reports, XXI, P. 78, 4. }
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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