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________________ जैन-शिलालेख संग्रह यिकदोळ "किकदोळ् समस्त-कळेयोळ् पाङ्गिन नडेय्चिकनादं मयकीर्ति-देष-यतिपं मिद्धान्त-चक्र श्वरम् ।। हेरगोळ्ळितेन्देल्लं । निरुतं बिनविसे केळदु बसदियनत्या-। दरदिन्दे माडि पक्कले । घरेयं धर्मक्के कोट्टु असमं पडेदळ् ।। अदेन्तेन्दडे शकर्ष १०७७ नेय युव-संवत्सरद पुष्यदमावास्ये आदिवाखुत्तरायण-संक्रान्तियन्दु भीमन्महाप्रधानं हिरिय-हडवळं चाविमय्यन साङ्ग-लक्ष्मी हिरिय-हडवळति श्री-मूल-संग (घ) द देशिय-गणद पुस्तक-गच्छद कोण्ड कुन्दान्वयदाचार्यरु श्री-जय-कीर्ति-सिद्धान्त-चक्रवर्तिगळ गुडि बकवेयक महोत्साहदि तावु हेरगिनल प्रतिष्ठेयं माडिसिद श्री-चेन्न-पार्श्वनाथ-स्वामिगळ श्रीपाद-पद्माष्ट-विधानक्कं उत्तुंग-चैत्यालयद खण्ड-स्फुटित-जीर्णोद्धारणकं रिषियराहार-दानक्कवेन्दु श्रीमतु हेरगिन प्रभुगळू-रोडेय-सोमनाथिमय्य विमय्य सिङ्गगावुण्डनोळगाद समस्त-प्रभुगळ समस्त-प्रधानर सनिधानदल श्रीमन्महामण्डलेश्वरनारसिंह-देवर्गे बिन्नहं गेय्दु हिरिय-करेंय कीलेरियल्लि कल्ल-तुम्बिन समीपदलु बिडिसिद गद्दे सलगेयय्दु वेहलेयल्लि स्थलवोन्दु। [जिस समय (अपने सर्वपदों सहित ) होयसल वीर-नारसिंह-देव अपने वासस्थल शाही नगर दोरसमुद्र में रहते थे और शान्ति एवं बुद्धिमत्तासे अपने राज्यका शासन कर रहे ये: उनके पादपद्मका उपजीवी पुराने सेनापति चाविमय्य थे, जिनकी प्रशंसामें कहा गया है कि वे बिट्टिदेवके गरुड़ थे। उनकी पत्नीका नाम जक्कन्वे था। उसकी बड़ी बहिन (उसकी प्रशंसा) पद्मियक्क थी। दोनोंके गुरु सिद्धान्त-चक्र श्वर नयकीर्ति-देव-यतिप थे। हरण की अच्छा स्थान होनेकी सबसे प्रशंसा सुनकर, नक्कलेने इच्छापूर्वक एक मन्दिर वहाँ बनवाया, और इसे भूमिदान भी दिया। इससे उसकी बहुत प्रसिद्धि हुई। (निर्दिष्ट मितिको ) महाप्रधान, पुराने सेनापति चाविमय्यकी पत्नी, श्रीमूलसंघ, देशियाण, पुस्तक गछ और कोण्डकुन्दान्वयके आचार्य नयकीर्ति-सिद्धान्त
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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