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________________ जैन-शिलालेख-संग्रह - प्रसाइनके एक सतीर्थ्य कुमारसेन-सैद्धान्तिक हुए, जो अपने समयके तीर्थनाथ कहे जाते थे-उनके बाद अजितसेन स्वामीके ज्येष्ठ पुत्र मल्लिषेण-मलधारि हुए, जो कलियुगके गणधर माने जाते थे। तत्पश्चात् वादीभसिंह अकलङ्ककी गद्दी सभालने वाले मुनीन्द्रप्रवर श्रीपाल-योगीश्वर हुए, जिन्होंने सम्यग् ज्ञानका प्रचार कर अहानके हटानेमें बड़ा काम किया। उन्होने अनेक तर्कशास्त्रके ग्रन्थ बनाये थे। इन जगद्गुरु श्रीपाल-विद्य-देवके पैरोंका प्रक्षालन करके,—इम्मडि-दण्टनायक बिडियण्णने 'बसदि की मरम्मत, भगवानकी पूजाके प्रबन्ध, तथा ऋषियोंके आहारदानके लिये, ( उक्त मितिको ) विष्णबर्द्धन-पोप्सलदेवके हाथोसे मटसे-नाडम बीजचोललका गाँव प्राप्त किया और उसे परमेश्वरको दानमें दे दिया। इसी तरह दोरसमुद्र-पट्टण-स्वामी ( नगरसेट ) वाण्डाडि-सेष्टि के पुत्र नाडवल-सेटिसे खरीदी गयी ( उक्त ) दूसरी भूमि भी उक्त मंदिरको टानमें दे डाली । द्वादश सोमपुरके १२ हिरसो से एक जो होलेय वेगर थावह भी दानमें दे दिया। (वे ही अन्तिम श्लोक)] [ EC,V,Bbur tl ., No. I77. ३०५ क अथूणाका शिलालेख अqणा ( उच्छृणक ) संस्कृत । [विक्रम सं० ११६६, बैशाख सुदि ३] २-६० ॥ ॐ नमो वीतरागाय । स जयतु जिनभानुर्भव्यराजीवराजी __ जनितवरविकाशो दत्तलोकप्रकाश. । परसमयतमोभिन स्थितं यत्पुरस्तात् क्षणमपि चपलासद्वादिखद्यौतकैश्च ॥ ॥ छ ।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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