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________________ १.०५ ई० में चोलराजा रान प्रयम के २१ वें वर्ष में एक जैन मुनि गुणवीर ने अपने काब्यादि कला में विशारद गुरु गणिशेखर के नाम पर एक नहर या मोरी बनवायी थी ( १७१)। दूसरे लेख नं० १७४ से ज्ञात होता है कि राजेन्द्र चोल प्रथम के १२ वें राज संवत्सर में मल्लियूर के एक व्यापारी की पत्नी ने तिरुमले में एक जैन मन्दिर की पूजा और दोपक के लिए दान दिया था इस मन्दिर को राजराज चोल की पुत्री कुन्दव ने बनवाया था इसलिए इसका नाम कुन्दवै जिनालय था। ले० नं. ४३४ से विदित होता है कि इस पर्वत को अहंसुगिरि ( अर्हत् का पर्वत ) कहते थे जिसका तामिल नाम एणगुणविरै तिरुमले ( अर्हत् का पवित्र पर्वत ) कहा गया है। यहां चेर वंशके राजा अतिरीमान् ने केरल नरेश द्वारा संस्थापित यक्ष यक्षिणी की प्रतिमाओं का जीणोंद्धार कराकर प्रतिष्ठापित किया था और एक घण्टा दान में दे यहाँ मोरी बनवायी थी । ले० नं० ५५७ में उल्लेख है कि राजनारायण शम्बुवराज के १२ वें वर्ष में पोन्नूर निवास' मए पौन्नाण्डे की पुत्री नल्लाताल ने एक जैन प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की थी। इसी तरह ८३१ वें लेख में उल्लेख है कि परवादिमल्ल के शिष्य अरिष्टनेमि प्राचार्य ने एक यक्षी की प्रतिमा बनवाकर स्थापित की थी। (3) श्रान्ध्र देश में जैन धर्म का आगमन संभवत: कलिंग देश से हुआ था वह भी ईशा की दो शताब्दी पूर्व जैन सम्राट खारवेल के समय में । पर शिलालेखों से जैनधर्म के केन्द्रों के प्रमाण ७ वीं शताब्दी से ही मिलते हैं । इस शताब्दी में यहां जैन धर्म को प्रश्रय कतिपय पूर्वी चौलुक्य नरेशों ने दिया था। प्रस्तुत संग्रह में केवल दो केन्द्रों के लेख ही श्रा सके हैं। ले० नं० १४३ से ज्ञात होता है कि नेल्लोर जिले के ओंगले तालुका में मल्लिय पूण्डि ग्राम में कटकाभरण नाम का एक प्रसिद्ध जैन मन्दिर था इसे कृष्णराज के पोत्र दुर्गराज ने बनवाया था। यह स्थान यापनोय संघ नन्दि गच्छ १. संभव है वह राजा राज राज चोल तृतीय का समकालीन था।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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