SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६७ का अनोखा वर्णन है (५४८)। ले० नं० ५४६ में एक अद्भुत सूचना है । उसमें उल्लेख है कि वहां से ईशान दिशा की ओर १५ बिलस्त के अन्तर पर शान्तिनाथ देव जिनकी ऊँचाई ६ बिलस्त है, जमीन के अन्दर गड़े हैं. कोई भन्य पुरुष उनको बाहर निकालकर उनकी प्रतिष्ठा कर पुण्य लाभ ले । सन् १६३५ के महत्वपूर्ण एक लेख (७१० ) में जैन और शैवों की एकता तथा परधर्म सहिष्णुता का वर्णन है। मलेयरः-चामराजनगर तालुके में जैन धर्म का एक मजबूत गढ़ मलेयूर था। यहाँ के कनकाचल पर्वत पर अनेक बसदियां थीं। सन् १९८१ में यहाँ की पार्श्वनाथ बसदि के लिए अच्युत वीरेन्द्र शिक्यप वैद्य की पत्नी चिक्कतायी ने पूजा प्रबन्ध के लिए, मुनियों के नित्यदान के लिए और हमेशा शास्त्रदान के लिए किन्नरीपुर ग्राम को दान में दिया था ( ४०१)। यहाँ के १४ वीं से लेकर १६ वीं शताब्दी तक के १० लेखों से विदित होता है कि यहाँ अनेक बसदियाँ थीं। आवलि नाड:-सोराब तालुके के अनेकों जैन केन्द्रों में प्रसिद्ध केन्द्र श्रावलिनाडु (हिरिय प्रावलि ) था। मध्य युग में इस स्थान के अनेकों सामन्तों ने. उनकी पत्नियों ने तथा नगरवासियों ने अपने उत्साहपूर्ण धर्मसेवन से इस स्थान को अमर बना दिया था । जैनधर्म की दृष्टि से उस स्थान का महत्त्व यद्यपि १२ वीं शताब्दी में भी था ( २८६, ३२२ ) पर विशेषकर यहाँ १४ वीं शताब्दी के मध्य से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रथम दर्शकों के अनेक लेखों से, जो कि इस संग्रह में दिये गये हैं, विदित होता है कि यहाँ जैन धर्म की धारा अच्छी तरह प्रवाहित थी। इन लेखों में अधिक संख्या समाधिमरण के स्मारक लेखों की है। इन लेखों से ज्ञात होता है कि यहां के सामन्त श्रावलि प्रभु या श्रावलि महाप्रभ कहलाते थे और अपने जीवन के अन्तिम क्षणों को सुधारने में कितने जागरूक रहते थे।
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy