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________________ वीरता के कार्यों का वर्णन है । उसने अनेकों देश जीतकर होसल विष्णुवर्धन को दिये। पुणिस, गंगराज के समान ही विशाल हृदय का था। उसने धर्म और मानवता की समान दृष्टि से सेवा की। ले० नं० २६४ में लिखा है कि युद्ध के कारण जो व्यापारी बिगड़ गये थे, जिन किसानों के पास बीज बोने को नहीं था, जो किरात सरदार हार जाने से अधिकार वंचित हो नौकर हो गए थे, उन्हें तथा उन सबको जिनका जो नष्ट हो गया था,वह सब पुणिस ने दिया और उनके पालन पोषण में मदद की । उक्त लेख में यह भी उल्लेख है कि उसने एगणनाड़ के अरकोटार स्थान में अपने द्वारा बनवाई गई त्रिकूट बसदि से संलग्न बसदियों के लिए भदान दिया तथा निर्भय होकर गंगों की तरह गंगवाडि की बसदियों को शोभा से सज्जित किया ।। ७. बलदेवण्पा:-विष्णुवर्धन का चौथा सेनापति बलदेवण्ण था ले० नं. २९.६ मे इसके सम्बन्ध में थाड़ा परिचय मिलता है। वह राजा अरसादित्य और आचाम्बिके का तृतीय पुत्र था। उसके दो बड़े भाइयों का नाम पम्पराय और हरिदेव था। लेख में उसके 'मंत्रियूथाग्रणि, गुणी, सकलसचिवनाथ एवं जिनपादांघ्रि सेवक' आदि विशेषण दिये गए हैं। ८-६. मरियाने और भरतः-होय्सल विष्णुवर्धन के सेनानायकों में दो भाई-दण्डनायक मरियाने और भरत या भरतेश्वर भी थे। इनके वंश का परिचय ले० नं. ३०७, ३०८ और ४११ में दिया गया है जिससे ज्ञात होता है कि इसके बंशज होयसल राजवंश से सम्बन्ध रखते थे। इस कारण इन दोनों भाइयों का पद सर्वाधिकारो, माणिकभाण्डारी तथा प्राणाधिकारी था। विष्णुवर्धन ने मरियाने दण्डनायक को अपना पट्टदाने ( राज्य गजेन्द्र ) समझकर ही उसे सेनापति बनाया था । ये दोनों भाई जैसे शूर वीर थे वैसे ही धर्मिष्ठ थे। लेख में इन्हें 'निरवद्यस्यावादलदमीरत्नकुण्डल, नित्याभिषेकनिरत, जिनपूजामहोत्सा हजनितप्रमोद, चतुर्विधदानविनोद' श्रादि कहा गया है। ले० नं० ३०७ में भरत के अनेक गुणों की प्रशंसा की गई है। वहाँ लिखा है कि उसका धन जिनमन्दिरों के लिए था, क्या सभी प्राणियों के लिए थी, उसका अच्छा मन जिनराज की पूजा
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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