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________________ १२६ मन्दिरों को अनेक प्रकार के दानों का उल्लेख है । इन लेखों में उसके दो जैन गुरुत्रों-मेषचन्द्र सिद्धान्त देव एवं शुभचन्द्र सिद्धान्त देव का नाम मिलता है। ले० नं० ३०१ में गंगराज की बड़ो प्रशंसा की गई है। उसकी मृत्यु के स्मारक स्वरूप उसके पुत्र बोप्प सेनापति ने दोर समुद्र में एक जिनालय बनवाकर पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की थी। उक्त लेख में लिखा है कि अनेक उपाधियों से विभूषित गंगसन ने अगणित ध्वस्त जैन मन्दिरों का पुनर्निर्माण कराया था। अपने अनवधि दानों से उसने गंगवाडि ६६००० को कोपण के समान चमकाया था। गंगराज के मत से ये ७ नरक थे-झूठ बोलना, युद्ध में भय दिखाना, परदारारत रहना, शरणार्थियों को शरण न देना, अधीनस्थों को अपरितृप्त रखना, जिनको पास में रखना चाहिए उन्हें छोड़ देना और स्वामी से द्रोह करना । । उक्त जिनालय का नाम गङ्गराज की एक विशिष्ट उपाधि पर से द्रोहघरट्ट जिनालय पड़ा था। इसी जिनालय की स्थापना को अपनी सुख समृद्धि के वर्धन में हेतु मानकर होय्सल विष्णुवर्धन वे इसे प्रामादि दान दिये थे। ५. बोप्प-गंगराज का पुत्र दण्डेश बोप्प देव भी बड़ा ही शूरवीर एवं धर्मिष्ठ था। उसने उपयुक्त द्रोहघरट्ट जिनालय के सिवाय दो और मन्दिर बनवाये थे, कम्बदहल्लि से शान्तीश्वर बसदि तथा सन् ११३८में त्रैलोक्यरखान दि जिसका दूसरा नाम बोप्पण चैत्यालय था ( ३०३)। इसे ले.नं० ३०३ में बुधबन्धु, सतां बन्धुः कहा गया है । इसी तरह ले. ३०१ और ४११ में उसके अनेक विशेषणों के साथ उसकी वीरता की प्रशंसा की गई है। ले.नं. ३०४ में उल्लेख है कि सन् ११३४ में उसने शत्रु पर श्राक्रमण किया और उनकी प्रबल सेना को खदेड़कर अपने मुनवल से कोडों को परास्त किया था। ६. पुणिस:-गंगराज के बहादुर साथियो में पुणिस भी था। उसके पूर्वन अमात्य होते आये थे। उसका पितामह पुणिसम्म चम्प था जो कि सकल शासन वाचक चक्रवति था । उसके ज्येष्ठ पुत्र चामण का पुत्र पुशिल था। यह होय्सल नरेश विष्णुवर्धन का सान्धिविप्रहिक था । ले० नं. २६४ में उसकी सामरिक शूर
SR No.010112
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1957
Total Pages579
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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