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________________ Hin भाषा में प्रस्फुटिताई है। इस दृष्टि से सकलकति का पाराषना प्रवियोगमार,'" जिनकास का वनवीन गामवराम का मायमविलास, मवावीदासाचन सुमति सम्माम' भगवतीकास का योगीरासा, पद का परमार्थी पालकरामा' चामविलास पानदरम का मानवपन बहोत्तरी, भूपरदास का भूपरविलास पादि ग्रंथ बिष उल्लेखनीय है। माध्यामिक मापना की परम परिणति .. रहस्य को उपलनिस उपमासिके भागों में साधक एक मत नहीं। इसकी प्राप्ति में सापकों ने सुगमायुम अषवाक्षस-मकुशल कर्मों का विवेक खो दिया । बौद्ध-धर्म के सहजमान संस्थान,.. तंत्रयाम वजमान प्रादि इसी साधना के बीभत्स रूप है। वैदिक सापनापों में भी। इस रूप के दर्शन स्पष्ट दिखाई देते हैं। वयपि जैन धर्म भी इससे अछता नहीं था , परन्तु यह सौभाग्य की बात है कि उसमे श्रद्धा और भक्ति का अतिरेक तो अवश्य हमा, विभिन्न मत्रों और सिवियों का प्राविष्कार भी हुमा किन्तु उन मंत्रों और सिदियों की परिणति वैदिक अथवा बोट सस्कृतियों में प्राप्त उस बीमरस स्प जैसी नहीं हुई। यही कारण है कि जैन संस्कृति के मूल स्वरूप प्राण तो नहीं रहा पर गहित स्थिति में भी नही पहुंभा । जैन रहस्य भावना के उक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि गैम रहस्यवादी साधना का विकास उत्तरोत्तर होता गया है, पर बह विकास मपनी मूल साधना के स्वरूप से उतना दूर नहीं हुमा जितना बौड सापना का स्वरूप अपने मूल स्वरूप से उसरकाल मे दूर हो गया । यही कारण है कि गैन रहस्यवाद ने जनेतर साधना मों को पर्याप्त रूप से प्रबल स्वरूप में प्रभावित किया । प्रस्तुत प्रबन्ध को माठ परिवतों में विभक्त किया गया है। प्रथम परिवर्त में मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि का अवलोकन है । सामान्यतः भारतीय इतिहास का मध्यकाल सप्तम शती से माना जाता है परन्तु जहां तक हिन्दी साहित्य के मध्य काल की बात है उसका काल कब से कब तक माना जाये, यह एक विचारणीय प्रश्न है। हमने इस काल की सीमा का निर्धारण वि. सं. 1400 से वि. सं. 1900 तक स्थापित किया है। वि. सं. 1400 के बाद कवियो को प्रेरित करने वाले सांस्शिक प्राधार में वैभिन्य दिखाई पड़ता है । फलस्वरूप जनता की वित्तरति मौर कृषि में परिवर्तन होना स्वाभाविक है । परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप जनता की कवि जीवन से' उदासीन और भमरद भक्ति में लीन होकर मात्म कल्याण करने की भोर उन्मुख थी इसलिए कविगण(इस विवेच्य काल में भक्ति और मध्यात्म सम्बन्धी रब. मामें करते दिखाई देते है। मेन कमियो की इस प्रकार की रचमा मममम वि.सं. 1900 4 मिमी म इस सम्पूर्ण काम को मध्यकाल नाम देना होमसन प्रतीत होता है। इसके पवाद हममे समकालीपि
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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