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________________ 66 सि विणु सलि ग जावई सिट पुणु बलि विहीणु । दोहिम जारहि समलु-चगु बुझइ मोह विलीषु वी55 11 मुनि रामसिंह के बाद रहस्यात्मक प्रवृत्तियों का कुछ मौर विकास होता गया। इस विकास का मूल कारण भक्ति का उद्रेक था। इस भक्ति का कर उत्कर्ष महाकवि बनारसीदास जैसे हिन्दी जैन कवियों में देखा जा सकता है। नाटक समयसार, मोहविवक युद्ध, (बनारसीदास) यादि ग्रंथों में उन्होंने भक्ति, प्रेम मीर श्रद्धा के जिस समन्वित रूप को प्रस्तुत किया है वह देखते ही बनता है । 'सुमति' को पत्नी और चेतन को पति बनाकर जिस प्राध्यात्मिक विरह को उकेरा है, वह स्पृहणीय है । श्रात्मा रूपी पत्नि और परमात्मा रूपी पति के वियोग का भी वर्णन प्रत्यन्त मार्मिक बन पड़ा है । मन्त में मात्मा को उसका पति उसके घर अन्तरात्मा में ही मिल जाता है। इस एकस्व की अनुभूति को महाकवि बनारसीदास ने इस प्रकार वर्णित किया है- पिय मोरे घट मैं पिय माहि । जल तरंग ज्यों दुविधा नाहि || पिय करता मैं करतूति । पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति || प्रिय सुख सागर में सुख-सींव । पिय सुख मंदिर मैं शिव- नींव || पिय ब्रह्म मैं सरस्वति नाम । पिय माषन मो कमला नाम || fee शकर में देवि भवानि । पिय जिनवर में केवल बानि ॥ ब्रह्म-साक्षात्कार रहस्यवादात्मक प्रवृत्तियों में अन्यतम है। जैन साधना में परमात्मा को ब्रह्म कह दिया गया है। बनारसीदास ने तादारम्य अनुभूति के सन्दर्भ मे अपने भावो को निम्न प्रकार से व्यक्त किया है"बालक तुह तन चितवन गागरि कूटि, अचरा गौ फहराय सरम में छूटि बालम ||1| पिग सुधि पावत वन मे पंसिउ पेलि, खाड़त राज डगरिया भयउ प्रकेलि, बालम 11 2112 रहस्य भावनात्मक इन प्रवृत्तियो के अतिरिक्त समग्र जैन साहित्य मे, विशेषरूप से हिन्दी जैन साहित्य में और भी प्रवृत्तिया सहज रूप में देखी जा सकती हैं। वहां भावनात्मक और साधनात्मक दोनों प्रकार के रहस्यवाद उपलब्ध होते हैं । मोह राग द्वेष प्रादि को दूर करने के लिए सत्गुरू श्रीर सत्संग की आवश्यकता तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए सम्यक् दर्शन-ज्ञान और चरित्र की समन्वित साधना की अभिव्यक्ति हिन्दी कौन रहस्यवादी कवियों की लेखनी से बड़ी ही सुन्दर, सरल 1. 2. बनारसीविलास, पु. 161. वही, पु. 228. (*
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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