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________________ 86 हम इस काल को सामान्यतः जैन धर्म के प्राविर्भाव से लेकर प्रथम शती तक निश्चित कर सकते हैं। जैन परम्परा के अनुसार तीर्थकर बादिनाथ ने हमें सामना की स्वरूप दिया । उसी के बाचार पर उत्तर कालीन तीर्थंकर मीर बाचायों ff की। इस सन्दर्भ में हमारे सामने दो प्रकार की रहस्य -साधनाए साहित्य में उपलम्ध होती हैं - 1. पार्श्वनाथ परम्परा की रहस्म साधना, खीर, 2. नि नतित परम्परा की रहस्य साधना । ASST SIN .. भ्रमवान पार्श्वनाथ जैन परम्परा के 23 वे तीर्थंकर कहे जाते हैं। उनसे भगवान महावीर, जिन्हे पालि साहित्य में विगठनातपुल के नाम से स्मरण किया गया है, लगभग 250 वर्ष पूर्व अवतरित हुए थे । त्रिपिटक मे उनके साधनात्मक रहस्यवाद को बाहुर्याम संबर के नाम से अभिहित किया गया है। से बार बार इस प्रकार महिला, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह है उत्तराध्ययन प्रादि ग्रन्थो मे भी इनका विवरण मिलता है । पार्श्वनाथ के इन व्रतों मे से चतुर्थ व्रत मे ब्रह्मचर्य व्रत भन्तत था के परिनिर्वाण के बाद इन व्रतो के माचरण में शैथिल्य भाया मौर फर्मतः समाय ब्रह्मय व्रत से पतित होने लगा । पार्श्वनाथ की इस परम्परा को जैन परम्परा वे 'पापस्थ' अथवा 'पासस्य' कहा गया है । freshneye अथवा महावीर के माने पर इस प्राचारर्शथित्य को परखा गया। उसे दूर करने के लिए महावीर ने अपरिग्रह का विभाजन कर निम्नाकित पथ व्रतों को स्वीकार किया - महिला, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह | महावीर के इन पंचों का उल्लेख कौन भागम साहित्य में तो माता ही है पर उनकी साधना के जो उल्लेख पालि साहित्य मे मिलते हैं। वे ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण पक्ष्ममद शास्त्री ने भागमो के ही किया है कि पार्श्वनाथ के पंच महाव्रत में, इस पर अभी मथन होना शेष है । है। इस सब में यह उल्लेखनीय है कि श्री प. आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न पावन नही (अनेकान्स, जून 1977) महाबीर की रहस्यवादी परम्परा अपने मूलरूप में लगभग प्रथम सदी तक चलती रही। उसमे कुछ विकास अवश्य हुआ. पर वह बहुत अधिक नहीं । यहां तक मामा मात्मा के तीन स्वरूप ही गये । भ्रन्तरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा । साधक बहिरात्मा को जोड़कर अन्तरात्मा के माध्यम से परमात्मपद को प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में आत्मा और परमात्मा में एकाकारता हो जाती है- 1. डॉ. भागचन्द जैन भास्कर का ग्रन्थ जैन इन बुद्धिस्ट तीन ईगिल
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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