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________________ 113 श्री जैनी का को जीन-पारिभाषिक शब्दों को समझने के लिए एक स्थान तन्त्र कहा जा सकता है भूमिका में उन्होंने स्वयं लिखा है- "ब मुझे अनुभव हुआ कि एक ही जैन शब्द के विभिन्न अनुवादों में विभिन्न अंगेजी पनि हो सकते हैं। इससे एकरूपता समाप्त हो जाती है और गन्धों के नेतर पाठकों के मन मैं दुविधा का कारण बन जाता है। इसलिए सबसे प्रच्छा उपाय सोचा गया कि प्रत्यन्त महत्वपूर्ण जैन पारिभाषिक शब्दों को साथ रखा जाय और जैनदर्शन के write में सही अर्थ प्रस्तुति का प्रयत्न किया जाये । निश्चित ही इस तरह के कार्य को अंतिम कहना उपयुक्त न होगा। यह उत्तम प्रयास है कि जैन पारिवाविक शब्दों की वर्णक्रमानुसार नियोजित किया जाये और उनका मनुबाद मंगे जी में दिया जाये ।" इस कोश का प्राधार पं. गोपालदास या द्वारा रचित जैन सिद्धान्त प्रवेशिका जैसा लघु कोश प्रतीत होता है। एक अन्य श्री बी. जैन मोर श्री मीनप्रसाद जैन ने 'बृहज्जैन शब्दाव' नाम से सन् 1924 और 1934 में दो भागो में बाराबंकी से प्रकाशित किया था। इसी प्रकार का भानन्द सामरसूरि द्वारा लिखित 'बल् परिचित मान्तिक सब्दकोश' भाग 1, सूरत से सन् 1954 में प्रकाशित हुआ था जिसमे जैन संद्धांतिक शब्दों को संक्षेप में समझाया गया है । 9. - - कोश इसके रचयिता शुल्लक जिनेन्द्र वर्णी हैं, जिन्होंने लगभग 20 वर्ष के सतत अमन के फलस्वरूप इसे तैयार किया है। इसमे उन्होंने जैन तत्वज्ञान, माचारकर्मसिद्धान्त, भूगोल, ऐतिहासिक तथा पौराणिक व्यक्ति, राजे तथा राजवंश 'मागम, शास्त्र व ग्रास्तकार, धार्मिक तथा दार्शनिक सम्प्रदाय शादि से सम्बद लगभग 600 2100 विषयों का सांगोपांग विवेचन किया है । सम्पूर्ण सामगी सं " तथा अपभ्रंश मे लिखित प्राचीन जैन साहित्य के 100 से अधिक महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक गन्थों से मूल सन्दर्भों, उद्धरणों तथा हिन्दी अनुवाद के साथ संकलित की गयी है। इसमें अनेक महत्वपूर्ण सारणियाँ मौर रेखाचित्र भी जोड़ दिये गये है, जिससे विषय अधिक स्पष्ट होता गया है। हर 'विषय को मूल शब्द के अन्तर्गत ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। साथ ही यह ध्यान रखा गया है कि शब्द और विषय की प्रकृति के अनुसार उसके मर्च, तारण, मेद-प्रभेद, विषय-विस्तार, शंका-समाधान व समन्वय भादि में जो-जी और जितना जितना अपेक्षित हो वह सब दिया जाय । प्रस्तुत कोच को भारतीय ज्ञानपीठ से चार भागों में 8 और 10 प्वाइंट में प्रकाशित हुआ है। सुबह की दृष्टि से भी इसमें अन्य कोशों की मपेक्षा वैशिष्ट्य है। टाइप की मिश्रता से विषय
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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