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________________ । से उबरों के माध्यम के अनुभव की मापकता को वष्ट किया है भी इसी प्रकार से “सो हम देल्या नैन भरि, सुम्बर बहन सन" रेल में मनुभव किया। - स्वानुभूति के संदर्भ में मन एकाग्र किया जाता है और इसके लिए बन नियमों का पालन करना मावस्यक है। योगों ही पमध्यान और दुस्लमान को प्राप्त कर पाता है। यही समभाव मोर समरसता की प्रति होती है। पानतराम ने इस पनुभूति को नगे का मुह माना है। इस सहर सालवा में अजपा जाप, नाम स्मरण को भी महत्व दिया गया है। मबहार नायपि से बाप करना अनुचित नहीं है, निश्चय नय की दृष्टि से उसे बाहर किया माना। तभी पानतराय ऐसे सुमरन को महत्व देते है जिससे ऐसौ सुमरन करिये रे भाई। पवन घंमै मन कितह न बाद।। परमेसुर सौं साचीं रहो। लोक रंचया भय तजि दी। यम मम नियम दोड़ विधि वारौ। प्रासन प्राणायाम समारी।। प्रत्याहार बारना की ध्यान समाधि महारस पीजै ॥ उसी प्रकार अनहद नाद के विषय में लिखते हैं अनहद सबद सदा सुन रे ॥ पाप ही जाने पौर न जाने, कान बिना सुनिये धनु रे । भमर गुंज सम होत निरम्बर, ला तर मति चितवन रे ।। इसीलिए पानतराय ने सोहं को तीन लोक का सार कहा है। बिन सापकों के स्वासोच्छवास के साथ सदैव ही "सोहं सोहं की पनि होती रहती है और जो मोहं के पर्व को समझाकर, पमपा आप की सामना करते है, बेड है 1. दादूदयाल की बानी, भाग-1 परपाको ग,97,933109 2. पानविलास, कलकत्ता हिन्दी पद संग्रह, पृ. 119 4: बही -110 119-20
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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