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________________ 34 परिहन्त का है। जैन साधकों ने पंच परमेष्ठियों को सद्गुरु मानकर उसकी उपासना, भक्ति और स्तुति की है। जैन दर्शन मे सद्गुरु को प्राप्त मौर प्रवि संवादी माना है । यानतराम को गुरु के समान श्रीर दूसरा कोई दाता दिलाई नहीं देता । उनके अनुसार गुरु उस अन्धकार को नष्ट कर देता है जिसे सूर्य भी नष्ट नहीं कर पाता । मेघ के समान सभी पर समान भाव से निस्वार्थ होकर वह पाजल बरसाता है, नरक तिर्यत्व प्रादि गतियों से मुक्तकर जीवों को स्वर्गमोक्ष मे पहुंचाता है । अतः त्रिभुवन मे दीपक के समान प्रकाश करने वाला सुरु ही है । वह संसार संसार से पार लगाने वाला जहाज है। विशुद्ध मन से उनके पद-पंकज का स्मरण करना चाहिए । गुरु समान दाता नही कोई । आदि । 1 संत साहित्य मे भी कबीर, दादू, नानक, सुन्दर दास प्रादि ने सद्गुरु पौर सत्संग के महत्व को जैन कवियों की ही भांति शब्दों के कुछ हेर-फेर से स्वीकार किया है । यानतराय कबीर के समान उन्हे कृतकृत्य मानते हैं । जिन्हें सत्संगति प्राप्त हो गई है- " कर कर संगत, सगत रे भाई | 2 भेदविज्ञान की प्राप्ति के लिए सद्गुरु मार्गदर्शन करता है । उसकी प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान प्रौर सम्यक्चारित्र का ममन्वित रूप-रत्न जय माना गया है । भेदविज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा गया है । प्रन्तरंग मौर बहिरंग सभी प्रकार के परिग्रहों से दूर रहकर परिषद् सहते हुए तप करने से परम पद प्राप्त होता है । 3 साधक कवि द्यानतराय भात्मानुभव करने पर कहने लगता है "हम लागे प्रातमराम सौं । उसकी मात्मा में समता सुख प्रकट हो जाता है, दुविधाभाव नष्ट हो जाता है और भेद विज्ञान के द्वारा स्व-पर का विवेक जात हो जाता है इसलिए स्थानतराय कहने लगते हैं कि प्रातम अनुभव करना रे भाई । "8 कवि यहां श्रात्मानुभूति प्रधान हो जाता है और कह उठता है "मोह कम ऐसा दिन प्राय है" जब भेदविज्ञान हो जायेगा । संत साहित्य में भी स्वानुभूति को रतन पाया रे करम विचारा. नैना नैन 1. atta पद संग्रह, पृ. 10 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 137 3. 4. 5. 6. वही पृ. 318 महत्व दिया गया है कबीर ने "राम प्रगोचरी, भाप पखाने श्राप थाप 5 हिन्दी पद संग्रह, द्यानतराय, पृ० 109-141 हिन्दी पद संग्रह, द्यानतराय, पृ. 109-141 कबीर ग्रन्थावली, पृ. 241
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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