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________________ 14. लोक बिसार - परिकर्म, व्यवहार, रज्युरावि, कवासवन्त मावि 1 इसमें 10 वस्तु, 200 पाहुड, पौर साढे बारह करोड़ पद हैं। कुल मिलाकर चौदह पूर्वी में 195 वस्तु और 3900 पाहुड़ होते हैं। पद के प्रमाण के संदर्भ में कोई निश्चिन जानकारी नहीं मिलती। हां, पट्टखण्डागम के कुछ सूत्र इस गुत्थी को हल करने का प्रयत्न अवश्य करते हैं पर उन्हें अंतिम नहीं माना जा सकता। इन पूर्वो में स्वसमय औौर परसमय का सुन्दर विवेचन रहा है । दर्शन, ज्योतिष, भूगोल, गणित, प्रायुर्वेद भादि शालाओं को भी इसमें समाहित किया गया | परन्तु इतने विशाल परिमाण वाला 'पूर्व' साहित्य घाव न जाने क्यों उपलब्ध नहीं है । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पूर्व साहित्य की भाषा परम्परा से संस्कृत मानी जाती है। पर मुझे लगता है वह प्राकृत में रहा होगा । व्यवहार सूत्र के अनुसार इस पूर्व साहित्य से अंग साहित्य की उत्पत्ति हुई है | धवला में 'इसे' श्रुत देवना' की संज्ञा दी गई है और उसके बारह मंगों के समान 'अंग' के भी बारह भेदों का वर्णन किया गया है चाचारोग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायाग, व्याख्याप्रज्ञाप्ति ज्ञातृधर्मक्रया, उपासकाध्ययन, अन्तः कृवृश, अनुतरोपपादिक दश प्रश्न-व्याकरण, विपाक सूत्र और दृष्टिवाद, दोनों परम्परात्रों मे इनके नामो मे कोई अन्तर नहीं है । } को सूत्रागम और गणधरों परम्परागत होने के कारण मंग साहित्य को अनुयोग में 'मागम' की संज्ञा दी गयी है। तीर्थंकरों द्वारा ज्ञान अर्थ को प्रात्मागम, गणधरों द्वारा रचित सूत्रों शिष्यो द्वारा रचित सूत्र अनन्तरागम हैं। परम्परागत होने के कारण यह सब परम्परागत है । इसे सिद्धान्त भी कहा जाता है। बीस पिटकों की तरह जैन सिद्धान्त साहित्य को 'गरि पिटक' भी कहा गया है। तीर्थकरों द्वारा प्रणीत उपदेश को गरणवर व्याख्यायित करते हैं जिसके माधार पर उनके शिष्य ग्रन्थ रचना करते हैं । शांतिचत्र की जंबूदीप्रज्ञप्ति की टीका में कुछ प्राचीन गाथाएं उद्धृत हैं जिनमें डॉ. बेबर ने केवल छ. प्रगों का ही उल्लेख पाया है- प्राचांराग, स्थान, समवाय arrerraria और दृष्टिवाद । प्रावश्यकनियुक्ति आदि में इन ग्यारह अंगों का निर्देश प्राचारांग आदि से प्रारम्भ किया गया है । लगता है, मंगों की परगना के संदर्भ में ये दो परम्पराएँ रही होंगी । सपूर्ण श्रुतज्ञान को दो भागो में विभाजित किया गया है-अंगप्रविष्ट पौर मंगers | अंगप्रfore द्वादशांग रचना है और उस पर आधारित ग्रन्थ समुदाय मंगबाह्य माना जाता है। प्रगबास के प्रावश्यक और प्रावश्यकव्यतिरिक्त ये दो मेद मावश्यक नियुक्ति, विशेावश्यक माध्य मादि ग्रन्थों में मिलते हैं । सामायिक
SR No.010109
Book TitleJain Sanskrutik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpalata Jain
PublisherSanmati Vidyapith Nagpur
Publication Year1984
Total Pages137
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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