SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर चिने हुये स्मारक के पास का यज्ञस्थान वा होमकुण्ड। ५चिता के ऊपर देहरी के आकार का चिनवा, स्तूप, साधरण देहरी। ६ चिता पर की पादका वाली देहरी या चरणपादका। ७ चिता पर का देवालय या विशालकाय मूर्ति। इन सातो में चैत्य के पहले पाँच अर्थ उस की व्युत्पत्ति को सुशोभित करते है और अन्त के दो रूढ़ीजन्य अर्थ चैत्य की व्युत्पत्ति से बड़ी दूर रहते हैं। अर्थात् वे लाक्षणिक और रूढ़ हैं एव शब्दानुगामी न होने के कारण वे अर्थ निरर्थक जैसे हैं। जहाँ तक मैं समझता है वहाँ तक एक २ अर्थ का सर्व व्यापी प्रचार होते हुये और एक २ अर्थ का सर्व व्यापी विनाश होते हुये कम से कम सौ २ या दो २ सौ वर्ष तो अवश्य बीते होगे। चैत्य शब्द का प्रचलित देवालय या मूर्ति अर्थ छठा और सातवाँ होने से वह बिलकल अन्तिम आधुनिक है यह बात हम ऊपर दिये हुये प्रमाणों से अच्छी तरह समझ सके हैं। इससे आचार्य श्री। हरिभद्रजी के उल्लेख या आचार्य श्रीहेमचद्रजी के 2 कोश के आधार से चैत्य शब्द का अन्तिम अन्त नही आ सकता। वे तो अपने समय के प्रचलित अर्थ को ही अपने ग्रन्थो मे लिख सकते हैं। इससे मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि उनका बतलाया हुआ अर्थ असत्य है। मुझे तो अन्य अर्थो के समान वह अर्थ भी मान्य है, परन्तु इस विषय मे मुझे इतना ही कहना है कि प्रचलित देवालय या मूर्ति यह कोई चैत्य शब्द का प्रधानार्थ या १ 'चेइयद्दो रूढ़ो 'जिणिदपडिम' ति अत्थओ दिट्ठो' (सबोध प्रकरण, देवस्वरूप, श्लोक ३२८ पृ०९२) अर्थात् चैत्य शब्द का जिनेन्द्र प्रतिमा रूढ अर्थ है। हरिभद्र रिजी ने अपने ललित विस्तरा नामक ग्रन्थ मे (पृ०७६-७७) चैत्य शब्द की व्युत्पत्ति करते हुये बतलाया है कि चित्तम्-अन्त करणम्, तस्य भावर कर्म वा (वर्णदृढादिलक्षणे प्यनि कृते) चैत्य भवति" परन्तु इस प्रकार की व्युत्पत्ति शब्द शास्त्र की दृष्टि से घट नही सकती, क्योकि चैत्य शब्द मे डबल त सभवित नही होता (वे स्वय भी तो चैत्य भवति का उल्लेख करते हुये एक त वाला ही चैत्य शब्द लिखते हैं) और इम हरिभद्रीय व्यत्पत्ति के अनुसार तो दो त वाला अर्थात् चैत्य शब्द बनता है। यदि चैत्य शब्द को दो त्त वाला मान भी लिया जाय तो फिर हेमचन्द्र जी के 'त्याऽचैत्ये' ८-२-१३ सूत्र मे उसका वर्जन सभवित नही होता, क्योकि वह सूत्र एक त वाले त्य का ही 'च करता है इस कारण। २ चैत्य जिनौक तद्विम्बम् चैत्य के द्वित्ततकार को च की प्राप्ति ही नही है, अत हेमचन्द्र जी की साक्षी से चित्त परसे चैत्य, की साधना योग्य नहीं है, तथा किसी कोश में भी इस तरह की व्यत्पत्ति देखने मे नही आती। फिर खूबी इस बात की है कि इस व्युत्पत्ति का अर्थ भी तो प्रचलित अर्थ में सघटित नही होता। कितनेक तो 'चित्तम् आह्लादयति तत् चैत्य? इस तरह की व्युत्पत्ति करके व्युत्पत्ति के अनुकूल अर्थ लेते हैं, परन्तु चित्त शब्द से चैत्य शब्द बन ही नहीं सकतायह बात तो अभी साबित हो चुकी है। श्री अभयदेवसूरिजी ने एव जबद्वीप प्रज्ञति के टीकाकार ने कितनीएक जगह (देखो-समिति स्थानागसूत्र की टीका० पृ० २३२, और जबूद्वीप प्रजति की टीका० पृ०१४०-१४७) ऐसी व्युत्पत्ति करके शब्दशास्त्र की विराधना की है।
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy