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________________ स्थान मैंने स्वय अपनी आखो से देखे हैं। जिस जगह में खड़ा होने से भी निरोगी मनुष्य का आरोग्य खराब होता हो वैसी जगहों में मंदिर बनवा कर जिन भक्ति करने वालों का यह साहस सर्वथा अवर्णनीय है। इस प्रकार की जिन भक्ति तो इन्द्रो को भी नसीब न हुई होगी!! जिन पाठकों को चैत्यों के प्राचीन आकार देखने हो उन्हें बम्बई के समीपस्थ कार्ला तथा बोरीवली की गफाये देख लेने की जरूरत है। ज्यो २ चैत्य के आकार बदलते गये त्यो २ उसके अर्थ भी बदलते गये। प्रारभिक चैत्य शब्द अन्वर्थ या और आजकल का चैत्य शब्द रूढ है, क्योकि उसे अपना मूल अर्थ छोडकर लोगों की इच्छानुसार चलना पड़ता है। इसके सिवा साहित्य मे अन्य भी कई शब्द बढ़ गये है जो मल मे अन्वर्थ थे और बाद मे रूढ़ी के वश हो गये है। चैत्य शब्द का प्रारभिक अर्थ चिता पर चिना हुवा स्मारक चिन्ह था। जब उस जगह मे उस स्मारक को कायम रखने के लिये या पहचान कराने के लिये पाषाणखण्ड या शिलालेख रक्खा जाता था तब चैत्य का अर्थ पाषाणखण्ड या शिलालेखर भी हवा। जब उसस्मारक चिन्ह के बदले या उसके ऊपर किसी वृक्ष को रोपित किया जाता उस वक्त चैत्य का अर्थ वृक्ष-चैत्य वृक्ष हुवा, जब उस स्मारक चिन्ह के पास यज्ञादि पवित्र क्रियाये की जाती थी उस समय चैत्य का अर्थ यज्ञस्थान में भी हआ है (देखो ममितिवाला औपपातिकसूत्र की टीका में चैत्य का वर्णन तथा अमरकोश वाला चैत्य शब्द) जब उस स्मारक चिन्ह को देवकुलिका के आकार मे बनाया जाता था उस वक्त चैत्य का अर्थ देवलिका (देहरी) हआ. जिस समय उस जगह चिनी हुई देवकलिका मे पादुकाये पधराई जाने लगी उस समय चैत्य का अर्थ पादुका सहित देवली या मात्र पादुका हुआ। जब उस जगह भव्य मदिर चिना जाने लगा और उसमे मूर्तिया पधराई जाने लगी तब चैत्य का अर्थ देवालय या मूर्ति किया गया। अभी तक चैत्य शब्द अन्वर्थ रहा। परन्तु जब चितादाह के सिवा स्थानान्तरो मे देवालय चिने गये या उनमे मूर्तिया स्थापित की गई तब वह रूढ़ हवा, डिन्थ, के समान सज्ञा शब्द बन गया और आरभ मे मात्र मदृश्य से एव आजकल केवल लौकिक सकेत मे चैत्य अर्थ मदिर या मर्ति हो गया है। इस प्रकार परिस्थिति के अनुसार चैत्य शब्द के अनेक अर्थ परिवर्तित हुए है, उन सबका मिलान करने पर माधारणत उसके सात अर्थ होते है और वे इस प्रकार हैं। १ चैत्य-चिता पर चिना हुवा स्मारक चिन्ह, चिता की राख। २ चिता ऊपर का पाषाणखण्ड, डला या शिलालेख। ३ चिता पर का पीपल या तुलसी आदि का पवित्र वृक्ष। (देखो, मेघदूत, पूर्वमेघ श्लोक २३)। ४ चिता 67
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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