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________________ मूल प्राचीन अर्थ नहीं है, इतना ही नहीं बल्कि ये दोनों अर्थ बिलकुल पीछे के और रूढ़ि से किये हुये हैं। सूत्रों की टीका करने वालो ने भी सूत्रों में आये हुये चैत्य शब्द की व्युत्पत्ति (चितेर्भावः कर्मवा) तो यथार्थ बतलाई है, परन्तु जहाँ पर 'अरिहंत चेइयाइ, या केवल 'चेइयाई' आता है वहाँ उन्होंने उसकी व्युत्पत्ति जन्य वास्तविक और प्रधान अर्थ न करके मात्र अपने समय की लोक रूढ़ी का अनुसरण किया हो ऐसा मालूम होता है। ऐसा होने से चैत्य के छठे एवं सातवे अर्थ को बतला कर ही उन्होंने रास्ता पकड़ा है। उन्होंने चैत्य का अर्थ करते हुये बहुत सी जगह बतलाया है कि " संज्ञाशद्वत्वात् देवविम्बम्, तदाश्रयत्वात् तद्गृहमपि चैत्यं, भगवती सूत्र अजीम० पृ० ५ रायपसेणीसूत्र अजीम० पृ० ४) अर्थात् चैत्य शब्द संज्ञा शब्द है इससे उसका अर्थ व्युत्पत्ति के अनुसार न करके रूढ़ी के अनुसार लेना चाहिये और वह देवबम्ब या देवगृह है। टीकाकारो के इस उल्लेख से पाठक समझ सकते हैं कि उनका किया हुआ अर्थ परपरागत उनके समय का रूढ़ अर्थ है। इस तरह अर्थ करने का प्रकार भी एक प्रकार का साहित्य विकार ही है और वर्तमान समय में प्रचलित मूर्तिवाद के नाम पर चढ़ा हुवा कलह भी इस विकार का ही परिणाम हो यह स्पष्ट मालूम होता हैं। मेरी मान्यता है कि किसी भी टीकाकार को टीका करते समय मूल के आशय को मूल के समय के वातावरण को ही ध्यान मे लेकर स्पष्ट करना चाहिये। इस प्रकार की टीका करने वाला ही सच्चा टीकाकार हो सकता है, परन्तु मूल का अर्थ स्पष्ट करते वक्त मौलिक समय के वातावरण का ख्याल न करके यदि परिस्थितिका ही अनुसरण किया जाय तो वह मूल की टीका नही किन्तु मूल का मूसल जैसा हो जाता है। मैंने सूत्रों की टीका की अच्छी तरह अध्ययन किया है, परन्तु उसमें . मुझे बहुत सी जगह मूलका मूसल किये सदृश प्रतीत होता हे और इससे मुझे बडा दुख प्राप्त हुआ है। यहाँ पर इस विषय मे विशेष लिखना अप्रस्तुत है, तथापि समय आने पर 'सत्र और उनकी टीका' इस सम्बन्ध मे ब्योरेवार उल्लेख करने के अपने कर्तव्य को कदापि न भूलूंगा। फिर भी ऊपर बतलाये हुये श्री शीलागर द्वारा किये हुये आचारागसूत्र के कितनेक पाठो के उलट पलट अर्थों पर से और इस चैत्य शब्द के अर्थ से आप स्वय देख सके होगे कि टीकाकार ने अर्थ करने मे अपने समय को ही सामने रखकर कितना अधिक जोखम उठाया है। मैं मानता हूँ कि यदि टीकाकार महाशयो ने मूल का अर्थ मूल के समयानुसार ही किया होता तो जैन शासन मे जो आजकल मतान्तर देख पडते हैं वे बहुत कम प्रमाण मे होते और धर्म के नाम से ऐसा अमावस्या का अन्धकार कम व्याप्त होता । क्लेश मे सर्वत्र आग्रह ही राजा होता है और इसी कारण आज साहित्य के मूलसत्य धूल मे मिल गये हैं, 69
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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