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________________ समीक्षण करना चाहिये कि उन ऋजु प्राज्ञों की यह स्थिति कहाँ? और हमारे ऋज प्राज्ञों की वर्धमान जैसे दीर्घ तपस्वी की परीक्षा लेने वाली वह भी अनम्रवृति कहाँ? इस हेत् से एव ऐसे ही अन्य भी अनेक प्रमाणों से मैं यह निर्णय कर सकता हूँ कि वर्धमान के समय पार्श्वनाथ जी की प्रजा सुखशील हो गई थी और वह भी यहाँ तक कि वर्धमान जैसे महापुरूष को पहचान सकने जितनी भी स्थिति न रही थी। भगवती सूत्र मे उसको सकलित करने वाले ने एक जगह पापित्यीय कालास्यवेशी अणगार के मुख से वर्धमान के निर्ग्रन्थों की सामायिक के सम्बन्ध में चर्चा कराई है। उस चर्चा के अन्त में वह पापित्यीय साध इस बात को स्वीकार करता है कि - "हे निर्ग्रन्थों ! जैसा तुमने सामायिक का स्वरूप बतलाया है ऐसा मैंने नही सुना, एवं वैसा मुझसे किसी ने नहीं कहा" इत्यादि यह विषय भगवती सूत्र में इस प्रकार लिखा है __ * इस समय पापित्य कालस्यवेशिक पुत्र अणगार बुद्ध हुवा-बोध को प्राप्त हवा, अर्थात् सामायिकादि के स्वरूप का नानकार हुआ और उसने वर्धमान के वक्रजड़ स्थविरों को वन्दन, नमन करके इस प्रकार कहा - कि हे भगवन्तो। तुमने जो पद कहे हैं इन्हे पूर्व में न जानने से, पहले न सुनने से, इसके साथ सम्बन्ध रखने वाला बोधि लाभ न प्राप्त होने से या मझमें स्वय विचार करने की बुद्धि न होने से, इस विषय का व्योरेवार बोध न रहने से, उन पदो को मैंने स्वय नही देखा था और, न सुना था इससे वे पद मेरी स्मृति मे न आने के कारण उन्हे विशिष्टतया न जान सकने से, गुरू ने उन्हे विशेषता पूर्वक न कथन करने से, वे पद विपक्ष से अपृथग भूत होने से, गुरू ने उन्हें बडे ग्रन्थो से संक्षेप में उध्धृत न किया होने से और इसी हेतु वे पद अनवधारित रहने से आपसे कथन किये गये इस अर्थ को मैंने न सद्दहा था। परन्तु हे भगवन्तो। अब मैंने आपसे इन पदों को जाना है, इससे मुझे आपके कथन किये अर्थ मे श्रद्धा, विश्वास और रूचि हुई है एव आप जो कहते है वह उसी प्रकार है। "एत्थणं (पासावच्चिज्जे) कालासवेसयपुत्ते अणगारे सबढ़े थेरे भगवते वदइ, णमसइ; वदिता, णमसित्ता एव वयासी-एएसि ण भते! पयाण पुष्वि अण्णाण्याए, असवणयाए, अबोहियाए, अणभिगमेण, अदिट्ठाण, अस्सुयाण, असुयाण, अविण्णायाण अव्वोगडाणं, अव्वोच्छिण्णाण, अणिज्जूढाण, अणुवधारियाण, एवमट्ट णो सद्दहिए णो पत्तिइए, णो रोइए, इयाणि भंते! एएसि ण जाणणाए, सवणयाए, बोहियाए, पयाणं अभिगमेण, दिट्ठाण सुयाण विण्णायाणं बोगडाणं वोच्छिण्णाण णिज्जूढाण उवधारियाग एयमहुँ सइहामि, पत्तियामि, रोएमि, एवमेय से जहेयं तुम्भे वयह। तए ण ते थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत अणगार एव बयासी-सद्दहाहि अज्जो! पत्तियाहि अज्जो! रोएहि बज्जो! से बहेयं अम्हे वयामो। तए ण
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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