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________________ 37 पछे हुये प्रश्नों के उत्तर मिले तब से ही उस पावापत्य गांगेय अणगार ने वर्धमान को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के तौर पर पहचाने थे। फिर उन्हें बन्दनादि करके उसने अपना चातुर्याम धर्म छोड़ कर वक्र जडो का पंचयाम मार्ग स्वीकृत कर अपना श्रेय सिद्ध किया था।" ___ इसी ऋजु प्राज्ञ गांगयने वर्धमान की परीक्षा ली थी और इस निमित्त उसने उन्हें अनेक परोक्ष प्रश्न भी पूछे थे। इसी प्रकार दूसरे * कालास्यवेशिक पाश्र्वापत्य ने वर्धमान के स्थबिरो के साथ समागम होते समय किसी भी प्रकार का साधारण विनय सत्कार तक नही किया, परन्तु उस समागम के परिणाम मे उसे वक्रजडो के समदाय मे मिलना पड़ा था। यह कैसी ऋजु प्राज्ञता और वक्रजडती है? इन दोनों पाश्वापत्यों के साथ सम्बन्ध रखने वाला जो उल्लेख मिलता है उसमें से उपयुक्त भाग में नीचे नोट में दिये देता हूँ, इस विषय को सविस्तर जानने की इच्छा रखने वाले पाठकों को वे दोनों प्रकरण देख लेने चाहिये। ऋज और प्राज्ञ पुरूषो का एक ऐसा स्वाभाविक नियम है कि वे कही भी आग्रही नही होते, गण के प्रेमी होते हैं। बल्कि 'गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंगं न च वयः. ऐसी उक्तियों को वे ही चरितार्थ करते हैं। वे ऐसे नम्र होते है कि सर्वथा अनजान किन्तु गुणी वा तपस्वी मनुष्य को मिलते ही उचित सन्मान करना नहीं चूकते। अब हमे यह १ "नेण कालेण, तेण समएण वाणियगामे णाम णयरे होत्था, वण्णाओं, दुइपलासे चेइए, सामी सभोसढे, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगवा, तेण कालेण, तेण समएण पासावच्चिज्जा गागेये णाम अणगारे जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छहत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदरसामते ठिच्चा समण भगव महावीर एव वयासी " "तप्पभिइ च ण से (पासावच्चिजे) गगेये अणगारे समण भगव महावीर पच्चभिजाणइ-. सव्वण्णू सव्वदरिसी। तएण से गगेये अणगारे समण भगव महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेइ, बदइ, णमसइ, वदित्ता, णमंसित्ता एव वयासी-इच्छामि ण भते।! तुम्भे आतेए चउज्जामाओ धम्माओ पचमहव्वइय, एव जहा कालासवेसियपुत्ते अणगारे तहेव भाणियब्द जाव० सव्वदक्खप्पहीणे।" - (भगवती० अजीम० पृ०७३८-७३९-७८७) ___ "तेण कालेण तेण समएणं पासावज्जेि कालासवेसियपत्ते णाम अणगारे जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छद, उवागइच्छत्ता थेरे भगवते एव क्यासी - (भग० वा० पृ० १३१)
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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