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________________ 39 इस प्रकार एक ऋजु प्राज्ञ संप्रदाय के. मनि की वाणी सुनकर वर्धमान के वक्रजड़ स्थविरों ने उसे कहा कि हे आर्य ! हम जो कहते हैं उसमें श्रद्धा करो, विश्वास करो और रूचि रक्खो। इसके बाद उस ऋजुप्राज्ञ कालास्यवेशिक मनि ने स्थविरों से कहा कि हे भगवन्तो ! मेरी ऐसी वृत्ति है कि अपना चाम धर्म छोडकर आपके प्रतिक्रमण सहित पंचयाम धर्म को अंगीकार करके विचरूँ। इसके उत्तर में स्थविरों ने विशेष कोमलता पूर्वक कहा कि हे देवप्रिय ! जैसे सुख पैदा हो वैसे करो और वैसा करने में विलम्ब न करो। (भगवती सूत्र अजीम० पृ० १३४-१३५)। इस उल्लेख में वर्धमान के वक्रजड शिष्यों से ऋजप्राज्ञ पापित्य ने सर्वथा न जाना हुवा जाना, न सुना हुआ सुना और वैसा करके उसने अपना पूर्वापर से चला आता चातुर्याम मार्ग छोड़ और वक्रजड़ों का सप्रतिक्रमण पचयाम मार्ग स्वीकार कर अपना कल्याण सिद्ध किया। यह बात भी मेरी पूर्वोक्त कल्पना को पुष्ट करती मालूम देती है। इसके उपरान्त मार्ग बदलने के सम्बन्ध मे वर्तमान अगग्रन्थों में पाश्वपित्यों से लगते हुये अन्य भी ऐसे अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं, जो मेरी मान्यता का समर्थन करते है। इस विषय मे मैं पार्श्वनाथ और वर्धमान, नामक एक सविस्तर निबन्ध लिखना चाहता हूँ। अतएव यहाँ पर इस विषय का विस्तार करके प्रस्तुत निबन्ध का कलेवर बढ़ाना व्यर्थ है। अस्तु ऊपर बतलाई हुई मेरी तमाम दलीलें इस बात को स्पष्टतया सूचित करती हैं कि वर्धमान के समय में पार्श्वनाथ की बाडी कमला गई थी, वह उत्तम त्याग के जल से सिंचित न होती थी, किन्तु उसे सुखशीलता का किंपाक के रस जैसा आपातमधुर पानी मिलता रहता था। पाठकों को स्मरण रखना चाहिये कि मैं श्वेताम्बरता और दिगम्बता के मूल की शोध कर रहा है। मझे अपने यथामतिजन्य मनन के बाद पाश्र्वापत्यों की सुखशीलता मे ही उसका मूल समाया हुआ मालूम देता है। वर्धमान के आसमास के पार्श्वनाथ के सन्तानीयो की सुखशीलता में मुझे कुछ भी मीनमेख मालम नहीं देती, एव उनकी ऋजुता और सरलता प्राज्ञता में भी मेरा कोई मतभेद नहीं है। इसमें मेरा मतभेद सिर्फ इतना ही है कि वे कोई अपने सुखशील आचारो के कारण ऋजप्राज्ञ न थे, परन्तु जब उन्हें वर्धमान की ओर से या उनके निर्ग्रन्थों की तरफ से कुछ समझाया जाता तब वे उस कालासवेसियपुत्ते अणगारे, थेरे भयवते वदइ, नमसइ वदिता, णमसित्ता एव वयासी-इच्छामि गंभते। तुम्ने अतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पचमहव्वइय सपडिक्कमण धम्म उवसपज्जित्ता गं विहरित्तए। अहासुह देवाणुप्पिया। मा पडिबध करेह" इत्यादि। (भगवती सूत्र, अजीम, पृ० १३४-१३५)
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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