SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलब्धपर्याप्त और निगोद ] [ ४१ पचेन्द्रिय के क्षुद्रभवो की सख्या बताई है किन्तु एकेन्द्रिय के क्षुद्रभवो की सख्या नही दी है विना उसके ६६३३६ भवो का जोड नही बैठता है गोम्मटसार जीवकाड गाथा १२२ से १२४ मे यही कथन है वहाँ एकेन्द्रियो के क्षुद्रभवो की अलग सख्या बताई है इस पर सहज प्रश्न उठता है कि क्या भाव पाहुड में यहाँ एक गाथा छूट गई है ? इसका समाधान यह है किमंजित ब्रह्मकृत - "कल्लाणालोयणा" ( माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला के सिद्धान्तसारादि संग्रह मे प्रकाशित ) ग्रन्थ मे भी ये ही दो गाथायें ठीक इसी तरह पाई जाती हैं । श्रुतसागर ने भी सहस्रनाम ( अध्याय ६ श्लोक ११९ ) की टीका में पृष्ठ २२७ पर ये ही २ गाथाएं उद्धृत की है। इससे १ गाथा छूटने का तो सवाल नही रहता है । अब रहा एकेन्द्रिय जीवो के क्षुद्रभवो की संख्या का सवाल सो वह परिशेष न्याय से बैठ जाता है । वह इस तरह कि - विकलतय और पचेन्द्रिय के क्षुद्रभवो की कुल संख्या गाथा २६ मे २०४ बताई है इसे ६६३३६ में से बाकी निकालने पर अपने आप शेष ६६१३२ एकेन्द्रिय के क्षुद्रभव हो जाते हैं । कुन्दकुन्द के पाहुड ग्रन्थ सूत्र रूप है अत यहाँ परिशेष न्याय का आश्रय लेकर १ गाथा की बचत की गई है । ~ निगोद का अर्थ साधारण अनन्तकायिक वनस्पति होता है देखो - (1) अनगार धर्मामृत पृष्ठ २०२ ( माणिकचन्द्र ग्रन्थ माला ) & निगोत लक्षण यथा - ( गोम्मटसार गाथा १६० से १६२ धवला प्रथम भाग पृष्ठ २७० )
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy