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________________ ४० ], [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ वहुरि आयुकर्मते इनि एकेन्द्रिय जीवनि विषै जे अपर्याप्त है तिनि के तो पर्याय की स्थिति उश्वास के १८ वे भाग मात्र ही है । पृष्ठ ६६ ( तिर्यञ्च गति के दुख ) बहुरि तिर्यञ्च गति विषै वहुत अलब्धपर्याप्त जीव हैं तिनि को तो उश्वास के १८ वें भाग मात्र आयु है । पृष्ठ ९७ ( मनुष्य गति के दुख ) वहुरि मनुष्य गति विषे असख्याते जीव तो लब्धिअपर्याप्त हैं ते सम्मूर्च्छन ही है तिनि की तो आयु उश्वास के १८ वे भाग मात्र है । ( ४ ) नयनसुख जी कृत पद ( अद्वितीय भजनमाला प्रथम भाग पृष्ठ ६० ) = नैन चैन = नैनसुख । नैन-नयन, चैन= सुख= नयनसुख । .. सुन चैन चैन जिन बैन अरे मत जनम वृथा खोवे । तरस तरस के निगोद से निकास भयो, तहाँ एक श्वास में अठारह वार मरे थो । सूक्ष्म से सूक्ष्म थी तहाँ तेरी आयुकाय, परजाय पूरी न करे थो फिर मरे थो । भाव पाहुड में कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है छत्तीस तिष्णि सया छावट्टिसहस्सवारमरणाणि । अन्तो मूहूत मज्झे पत्तोसि निगोयवासम्मि ॥ २८ ॥ वियलदिए असीदो सट्ठी चालीसमेव जाणेह । पंचिन्दिय चउवीसं खुदभवंतोमूहूत्तस्स ॥ २६ ॥ इन गाथाओ मे निगोद वास मे ६६३३६ वार जनममरण एक अन्तर्मुहूर्त में बताया है । तथा विकलत्रय और -
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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