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________________ [ ★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ गोम्मटसारादि सिद्धात ग्रन्थो मे निगोद का कही भी १८ वार एक श्वास मे जन्म मरण करना ऐसा लक्षण नही दिया है प्रत्युत एक शरीर में अनन्तजीवो का एक साथ निवास करना ऐसा लक्षण दिया है । ४२ ] ( साहारणोदयेण णिगोद शरीरा हवति सामण्णा । ते पुण दुविहा जीवा बादर सुहमाति विष्णेया ) ।। १६० ।। साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणियं ॥ १६१ ॥ जत्थेक्कु मरइ जीवो तत्थ दु मरणं हवे अणताणं । arrat जत्थ एक्को वक्कमणं तत्थ णंताणं ॥ १६२ ॥ ( 11 ) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका शुभचन्द्रकृत पृष्ठ २०४ ( गाथा २८४ ) - "नि नियता गामनन्तसंख्याविच्छिन्नानां जीवानां गां क्षेत्र ददातीति निगोदं । निगोदं शरीरं येषां ते निगोदा: निकोता वा साधारण जीवाः ( अनन्तकायिका ) ॥"" ऐसी हालत में उपरोक्त भाव पाहुड गाथा २८ में जो निगोद शब्द दिया है उसका अर्थ "अनन्तकायिक एकेन्द्रिय वनस्पति नही बैठता है क्योकि ६६३३६ भव जो निगोद के बताए है उनमे त्रस स्थावर सभी है। इसका समाधान बहुत से भाई यह करते है कि --- निगोद का अर्थ लब्ध्यपर्याप्तक करना चाहिए किन्तु यह अव्याप्ति दूषण से दूषित है क्योकि सभी निगोद लब्ध्यपर्याप्तक नही होते बहुत से पर्याप्तक भी होते हैं । इसके सिवाय यह अर्थ निगोद के प्रसिद्ध अर्थ (अनन्त
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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