SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० ] [★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अलब्ध पर्याप्त नही होते । विशेष यह है कि - सिर्फ सम्मूच्छिम मनुष्य अलब्ध पर्याप्तक ही होते है । वे पर्याप्तकनिवृत्यपर्याप्तक नही होते हैं। सभी एकेन्द्रिय- विकलेन्द्रिय जंग्वो का एकमात्र सम्मूर्च्छन जन्म ही होता है । सज्ञीअसज्ञी पचेन्द्रिय नरतिर्यञ्च सम्मूच्र्छन जन्म वाले भी होते है और गर्भज भी होते है । भोगभूमि मे सम्मूर्च्छन त्रस जोव नही होते हैं । अत वहाँ अलब्धपर्यान्तक त्रस जीव भी नही होते है । दिगम्वर मत मे सम्मूच्छिम मनुष्यो को भी सज्ञी माना है । परन्तु श्वेताम्बर मत में उन्हें असज्ञी माना है और उनकी उत्पत्ति भोगभूमि मे भी लिखी है। जो जीव अलब्ध पर्यातक होते है उनकी जघन्य और उत्कृष्ट आयु एक उच्छ्वास के १८ वे भाग मात्र होती है । अर्थात् न इससे कम होती और न इससे अधिक होती है । 4 1 दिगम्वर मत मे मनुष्यो के भेद इस प्रकार बताये Ĉ हैं “.. ' आर्य खण्ड, म्लेच्छं खण्ड, भोगभूमि और कुभोग भूमि ( अन्नद्वीप ) इनं ४ क्षेत्रो की अपेक्षा गर्भज मनुष्यो के ४ भेद होते हैं। ये चारो ही पर्याप्त निर्वृत्य पर्याप्त होने से प भेद होते हैं । सम्मूर्च्छन मनुष्य आर्यखण्ड मे ही होते हैं और वे नियम से अलब्धपर्याप्तक ही होते हैं । अत उसका एक ही भेद हुआ । इस १ को उक्त ८ मे मिलाने से कुल ६ भेद मनुष्यो के होते हैं । t -1 ܆ 1 T अलब्ध पर्याप्त जीव एकेन्द्रिय को आदि लेकर पाँचो ही इन्द्रियो के धारी होते है । एकेन्द्रियो मे पृथ्वीकायिक आदि अलब्धपर्याप्त स्थावर 'जीव अपनी-अपनी स्थावर काय मे पैदा होते हैं । इसी तरह विकलत्रय अलब्धपर्यास्तको के
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy