SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलव्धार्याप्तक और निगोद । [ ३१ उत्पत्ति स्थान भी पर्याप्त विक्लत्रयो की तरह हो समझने चाहिये। तथा सम्मूच्छिम पर्याप्त तिर्यञ्चो के भी जो-जो उत्पत्ति स्थान होते है, उन्ही में सम्मझिम अलब्धपर्याप्तक पचेन्द्रिय तिर्यञ्चो की उत्पत्ति समझ लेनी चाह्येि। क्योकि ये अलब्ध पर्याप्तक जोव गर्भज तो होते नही, ये तो सव सम्मृछिम होते है। अत जैसे अन्य पर्याप्त सम्मूच्छिप त्रस जीव इधर-उधर के पुद्गल परमाणुओ को अपनी कायें बनाकर उनमे उत्पन्न हो जाते है । उसी तरह ये अलब्धपर्याप्तक त्रस जीव भी उत्पन्न हो जाते है। किन्तु अलब्धपर्याप्तक मनुष्यो की उत्पत्ति स्थान के विषय मे स्पष्ट आगम निर्देश इस प्रकार है। -"कर्म भूमि मे चक्रवर्ति-वनभद्रनारायण की सेनाओ मे जहाँ मल मूत्रो का क्षेपण ोता है उन स्थानो मे, तथा वीर्य, नाक का मल, कान का मल, दन्तमल, कफ इत्यादि अपवित्र पदार्थों मे सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं । वे अलव्धपर्याप्तक होते हैं और उनका शरीर अगुल के असख्यातवे भाग प्रमाण होता है। - "मूलाराधना पृष्ठ ६३८" गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा ६३ मे लिखा है कि -सम्मूच्छिम मनुष्य नपुसक लिंगी होते हैं। इसी प्रमग मे इस गाथा की सस्कृत टीका मे लिखा है कि-"स्त्रियो की योनि, काख, स्तन मूल और स्तनो के अन्तराल मे तथा चक्रवर्ती की पटराणो विना अन्य के मलमूत्रादि अशुचि स्थानो मे सम्मूच्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। । श्री कुन्दकुन्दाचार्य सूत्र पाहुड मे लिखते हैं किलिगम्मिय इत्थीणं थणंतरे णाहिकक्खदेसेसु । भणिओ सुहुमो काओ तासं कह होइ पन्यज्जा ॥ २४ ॥
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy