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________________ PL अलब्धपर्याप्तक और निगोद ससारी जीव पर्याप्तक, निवृत्य पर्याप्तक और अलब्धपर्याप्तक ऐसे तीन प्रकार के होते हैं। अलब्धपर्याप्तक का पर्याय नाम लब्ध्य पर्याप्तक भी होता है। जिस भव मे जितनी पर्याप्तिये होती है उतनी को जो पूर्ण कर लेते है वे जीव पर्याप्तक कहलाते हैं। अगर उनके कम से कम शरीर पर्याप्ति भी पूर्ण हो जाये तब भी वे पर्याप्तक कहला सकते है। और जो पर्याप्तियो को पूर्ण करने में लगे हुए हैं किन्तु अभी शरीर पर्याप्ति को भी पूरी नहीं की हैं आगे पूरी करने वाले है वे जीव निवृत्यपर्याप्तक कहलाते हैं। तथा जो जीव एक उच्छ्वास के १८ वें भाग प्रमाण आयु को लेकर किसी पर्याय मे जन्म लेते है और वहां की पर्याप्तियो का सिर्फ प्रारम्भ हो करते हैं । अत्यल्प आयु होने के कारण किसी एक भी पर्याप्ति को पूर्ण न करके मर जाते हैं वे जीव अलब्धपर्याप्तक कहलाते हैं । ऐसे जीवो के भव क्ष द्रभव कहलाते है। वे जीव १ उच्छ्वास मे १८ वार जन्मते है और १८ वार मरते हैं । इस प्रकार के क्षुद्रभवो के धारी अलब्धपर्याप्तक जीव ही होते हैं अन्य नही। सभी सम्मान जन्म वाले जीव पर्याप्तक, निवृत्यपर्याप्तक और अलब्धपर्याप्तक होते हैं। शेष गर्भ और उपवाद जन्म वाले जीव पर्याप्तक-निवृत्यपर्याप्तक ही होते है, १ शास्त्रो मे सिर्फ 'अपर्याप्तक' शब्द में भी इसका उल्लेख किया
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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