SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तिलोयपण्णत्ती-अनुवाद.] [ ४७१ (प० टोडरमलजी कृत अनुवाद -तिन जिन-प्रतिमानि के पार्श्व विष श्री देवी सरस्वती देवी अर सर्वाह यक्ष अर सनत्कुमार यक्ष इनके प्रतिबिंब हो है ) (२) सनत्कुमार सर्वाण्हयक्षयो प्रतिबिंबके। श्री देवी श्रुतदेव्योश्च प्रतिबिबे जिनपार्श्वयो. ॥॥ [विभाग १ लोक विभाग (सिंहस्रषि)] (अर्थ -~प्रत्येक जिनबिंव के दोनो पार्श्वभागो मे सनत्कुमार और सर्वाण्ह यक्षो के तथा श्री देवी और श्रुतदेवी के प्रतिबिंब होते हैं)। (३) तिलोयपण्णत्ती अधिकार ४ गाथा १६३६ इसमे भी इसी प्रकार का कथन है इसमे आपने 'सन्वाण' का 'सण्यिक्ष' ऐसा ठीक अर्थ किया है। किन्तु उसके बाद के अधिकार ७ गाथा ४८ मे गलत अर्थ कर गये हैं जैसा कि ऊपर प्रदर्शित किया है। तिलोयपण्णत्ती के माननीय अनुवादकजी सा० एक बहुश्रुत विद्वान हैं। उन्होने अनेक उच्चकोटि के जैन ग्रन्थो का हिन्दी अनुवाद सपादनादि अत्यत परिश्रम से करके पाठको का महान् उपकार किया है। ___ यह लेख लिखने का हमारा शुद्धाशय यही है कि-महान् अन्थो के अनुवादादि में कही-कही गलतियाँ हो जाना बहुत कुछ सभव है । अतः किसी के द्वारा उन गलतियो के बताये जाने पर अगर पै वास्तविक है तो विद्वान् को कभी नाराज नही होना चाहिए और सावधानी के साथ श्रुत सेवा मे सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। शास्त्रो मे उत्तरोत्तर लिपिकार-प्रतिलिपिकार-सपादक
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy