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________________ ४७२ ] [ * जैन निवन्ध रत्नावली भाग २ अनुवादक और मुद्रक आदि के प्रमाद व दृष्टिदोपादि से अनेक भूले हो जाती है, अत ग्रन्थो को शुद्ध रूप से पठन-पाठन करना चाहिए तभी लाभ होगा। - - - * मुद्रण में कमी-२ गलतियां होती है इसका १ नमूना प्रस्तुत करते हैं - भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी में प्रकाशित उत्तर पुराण पर्व ६८ श्लोक ३७८ मे- मप्नपच" शब्द छपा है और अनुवाद मे इसका अर्थ "विस्तार के साथ" किया गया है किन्तु दोनो का सामजस्य नहीं बैठता . अनुवाद तो सगन मालूम होता है पर छपा हुआ मूल शब्द असगत मालूम होता है। जब इस पर विचार किया गया तो यह निश्चय हमा कि-यहा 'मप्रपच' शुद्ध शब्द होना चाहिए। क्योकि प्रपंच का अयं विस्तार होता है अत मनपच का अर्थ विस्तार के साथ' ठीक है। ।
SR No.010107
Book TitleJain Nibandh Ratnavali 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMilapchand Katariya
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1990
Total Pages685
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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