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________________ १५५५ से १५९८ ई. तक शासन किया, राज्य का प्रभूत उत्कर्ष किया, वह तत्कालीन मट्टारकों बकलंक हि. तथा भट्टाकलंक का भक्त गृहस्थ शिष्य था। उसकी एक पुत्री बोलिगि के राबा घन्टेन्द्र से विवाही थी -वह राज्यबंश भी इन्हीं गुरुषों का भक्त था। अपने १५६८ ई. के ताम्रशासन में उसने स्वयं को शन्दानुशासन के कर्ता भट्टाकलंक का प्रिय शिष्य कहा है। [देसाई. १२९.१३१] भरसप्पोय- १. गेरसोप्पे के एक शि. ले. के अनुसार, इस राजा को दौहित्री शान्तलदेवी ने समाधिमरण किया था-संभव है अरसप्प प्र.या द्वि. से अभिन्न हो। [देसाई. १३१; जैशिसं. iv. ५३९] २. जिसके पुत्र इम्महि अरसप्पोडेय ने १७५७ ई० में चारुकोत्ति पंडितदेव को भूमिदान किया था। [शिसं. iv. ५२०] मरसम्प १०८१ ई० के लक्ष्मेश्वर के दानलेख के दाता (दिनकर) का एक धर्मात्मा सम्बंधी। शिसं. iv. १६५] बरसम्वे गन्ति-सूरस्थगण के कल्नेले के आचार्य रामचन्द्रदेव की शिष्या तप स्विनी आयिका, जिसने १०९५ ई० में समाधिमरण किया था। [जैशिस.i.२३४; एक. v. ९६] मरसाबित्य- या राजा आदित्य, विष्णुवर्धन होयसल (११०६-४१ ई.) के जन मन्त्री एवं वीरसेनानी दण्डनायक बलदेवण्ण के पिता, उसकी भार्या का नाम आचाम्बिके था, दो अन्य पुत्र, पंपराय और हरिदेव तथा पौत्र माचिराज भी उक्त नरेश के जैन वीर सेनानी थे। [प्रमुख. १४६; जैशिस.i. ३५१; मेजं. १३३] অ मूलगुन्द निवासी जैन वैश्य श्रेष्ठि चन्द्रायं का पिता, चिकार्य का पुत्र और नागार्य का भाता -इसने राष्ट्रकट सम्राट कृष्ण द्वि. अकालवर्ष के शासनकाल में, ९०३ ई. में, स्वपिता द्वारा निर्मापित भव्य एवं उत्तुंग जिनालय के लिये स्वगुरु कनकसेन मुनि को प्रभूत भूमिदान किया था -यह मुनि चन्दिकावाटसेनान्बय के कुमारसेन के शिष्य और वीरसेन के शिष्य थे। [प्रमुख.१०६; देसाई. १३४; जैशिसं.. १३७] मरसिकम्बे- चामराज चभूपति की प्रथम पस्नी, और विष्णवधन होयसल के राजदण्डाधीश एवं सन्धिविग्रहिक मन्त्री वीरवर पुणिसमय्य ऐतिहासिक व्यक्तिकोष
SR No.010105
Book TitleJain Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherGyandip Prakashan
Publication Year1988
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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