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________________ १७२ उन्होंने १९३९ में डी. लिट. किया, १९४०-४३ में स्प्रिंगर शोधकर्ता रहे, कालिज से निम्रत होकर कई वर्ष यू. जी. सी. की वृत्ति पर मानद बाचार्य एवं शोध निदेशक रहे, और १९७१ से मैसूर विश्वविद्यालय में संगविधा एवं प्राकृत भाषाओं के प्राचार्य रहे- ८ अक्तूबर १९७५ ई० को वह महामतोषी स्वर्गस्थ हुआ । बलि भारतीय प्राच्यविद्या सम्मेलन में वह कई बार 'प्राकृत एवं जैनधर्म' विभाग के अध्यक्ष रहे. १९४६ में उसके पालिप्राकृत- जैनधर्म बौद्धधर्म विभाग के अध्यक्ष रहे, और उसके १९६६ में अलीगढ़ में सम्पन्न २३वें अधिवेशन के प्रधानाध्यक्ष रहे, श्रवणबेलगोल के १९६७ के अखिल कल साहित्य सम्मेलन के भी अध्यक्ष रहे। भारतीय सरकार के प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने प्राच्यविदों की अन्तर्राष्ट्रिय कांग्रेस के कैनबरा (आस्ट्रेलिया) अधिवेशन में १९७१ में और पेरिस अधिवेशन मे १९७३ में भाग लिया, तथा ल्यूवेन (बेलजियम) के १९७४ के 'धर्म एवं शान्ति विश्व सम्मेलन' में भाग लिया। फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड आदि कई देशों के विश्वविद्यालयों के आमंत्रण पर १९७३ में वहाँ जाकर व्याख्यान दिये । प्रवचनसार तिलोयपणति, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, धूर्ताख्यान, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, शाकटायन व्याकरण, बृहत्कथाकोश, प्रभृति लगभग दो दर्जन महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रन्थों के सुसम्पादित संस्करण प्रस्तुत किये, जिनकी विस्तृत प्रस्तावनाओं ने शोध-खोज के नये-नये आयाम खोले । अनेक शोधपत्र भी प्रकाशित किये और पचासों शोधछात्रों का निदेशन किया । माणिकचन्द दिग. जैन ग्रंथमाला, भारतीय ज्ञानपीठ की मूर्तिदेवी ग्रंथमाला, और शोलापुर की जीवराज ग्रंथमाला के प्रधानसम्पादक तथा जैन सिद्धांत भास्कर जैना एन्टीक्वेरी आदि शोध पत्रिकाओं के सम्पादक रहे। अपने मधुर सद्व्यवहार एवं उन्मुक्त सहयोग भाव के लिए वह अपने अग्रज, साथी, और कनिष्ट विद्वानों में लोकप्रिय रहे। वर्तमान युग में जनविद्या (जैनालाजी ) तथा उसको शोध प्रवृत्ति को सम्यक् रूप एव स्थान प्राप्त कराने में स्थ० डा० उपाध्ये जी का महत्वपूर्ण योगदान है । ऐतिहासिक व्यक्तिकोष
SR No.010105
Book TitleJain Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherGyandip Prakashan
Publication Year1988
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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