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________________ और उसके लिए दान प्राप्त किये थे [देसाई. १५१; शिसं. vi.१३९-१४०] ३. कवलिगणाचार्य अष्टोपवासि भटार,जिनके शिष्य रामचन्द्र भटार को, १६८ ई० में, कदम्बलिगे के राजा पडिग की रानी बक्किसुन्दरी द्वारा काकम्बल में निर्मापित जिनालय के लिए दो प्राम दान किये गये थे। [प्रमुख. १११] ४. मूलसंघ-बलात्कारगण के अष्टोपवासि मुनि, जो वर्षमान के प्रशिष्य और विद्यानन्द के शिष्य थे, तपा पक्षोपवासि गुणचन्द्र के गुरु थे। ल. ११.०० -जिस ११७५-७६ ई. के शि. ले: में उल्लेख है वह उनसे चार-पांच पीढ़ी बामे का है। [देसाई. ११७] ५. सूरस्थगण के कल्नेलेदेव के शिष्य अष्टोपवासि मुनि, जिनके शिष्य हेमनन्दि और प्रविष्य विनयनन्दि थे, जिनके शिष्य पाल्यकीति (१११८ ई.)-अतः इन अष्टोपवासि का समय ल. ११०००। [शिसं. 1-२६९] ६. देशीगण के अष्टोपवासि कनकनंदि भटार, जिनकी प्रेरणा पर चालुक्य जगदेकमल्ल के राज्य में, १०३२ ई. में, जगदेकमाल जिनालय के लिए राजा द्वारा भूमिदान दिया गया था। [शिसं. iv. १२६] ७. अष्टोपवासि कनकचन्द्र, नन्दिसंघ-बलात्कारगण के देवचन्द्र के शिष्य और नयकीति के गुरु -१२०५ ई.के शि. ले. में जिन माषनन्दिको दान दिया गया था, उनके परम्परा गुरु, ११वीं शती ई०। [शिसं. iv. ३४२ एवं ३७६] महाकवि, उपशममूत्ति-शुखसम्यक्स्व-सम्पन्न श्रावक पटुमति और उनकी सभ्यक्त्वशुरुशीला भार्या वैरेति के सुपुत्र, ने मौद्गल्यपर्वतस्थ निवासवन में संपत नाम्नी सद्भाविका द्वारा पुत्रवत् परिपालित होकर मुनिराज भावकीति के सान्निध्य में विद्याध्ययन किया था, तदनन्तर सर्वजनोपकारि श्रीनाथ राजा के राज्य में, (चोडविषय) चौलदेश की विरलानगरी में जाकर जिनोपदिष्ट पाठ ग्रन्थों की रचना की थी। जिनमे वर्षमानचरित सं०९१०, अर्थात् १५३ ई. में समाप्त हुआ था, और फिर अपने जिनधर्म भक्त ब्राह्मण मित्र जिनाप की प्रेरणा पर शान्तिनाथ पुराण की असग ऐतिहासिक व्यक्तिकोष
SR No.010105
Book TitleJain Jyoti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherGyandip Prakashan
Publication Year1988
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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