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________________ ( २५ ) पूर्वक ऐसे ही गुणधर महत्-सिड-शक्ति की इन दोषों को तय करने के लिए पूजा करते हैं।' पूज्य आस्मन् में अनन्त गुणों का समुच्चय होता है। विवेच्य काव्य में पूज्य में अनन्त चतुष्टय का होना व्यंजित है। अनन्तचतुष्टय वस्तुतः यौगिकशब्द है। यहाँ अनन्त शम्द आत्मा का पर्याय है तथा चतुष्टय का अर्थ है चार तत्वों का समूह । जनदर्शन में आत्मा का स्वभाव अनन्तचतुष्टय बताया गया है । अनन्त वर्शन, अनन्त शान, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख का सम्म समीकरण वस्तुतः अनन्त चतुष्टय कहलाता है। अष्टकर्मों के बन्धन से मुक्त, निरूपमेय, अचल, क्षोभ रहित तथा जंगम रूप से विनिमित, सियालय में बिराजमान कायोत्सर्ग प्रतिमा निश्चय से सिद्ध परमेष्ठी को होता है। जीव आत्मा निज स्वभाव द्वारा चार धातिया- वनावरणीय मानावरणीय, मोहनीय तथा आन्तराय-नामक कर्मों को क्षय कर अनन्तचतुष्टय गुणों को प्राप्ति कर अनन्तानन्द की अनुभूति करता है।' जैन हिन्दी पूजा काव्य में अनन्त चतुष्टय का वर्णन अठारहवीं शती से ही हुआ है । कविवर बानतराय द्वारा रचित श्री देवपूजा में शानी का लक्षण स्पष्ट १. जय दोष अठारा रहित देव, मुझ देहु सदा तुम चरण सेठ । हूँ करू विनती जोरि हाथ, भव तारन तरन निहारि नाथ ॥ -श्री महावीर जिन पूजा, कविवर रामचन्द्र, नेमीचन्द्र वाकलीवाल जैन ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान , सन् १९५१, पृष्ठ २११ । दंसण अणंत णाणं अनंत वोरिय अणंत सुक्खा य । सासय सुक्खय देहा मुक्का कम्मट्ठबंधे हिं ।। णिरुवमममलमखोहा णिम्मविया जंगमेण रूवेण । सिद्धट्ठाणम्मि ठिया दोसरपडिमा धुवा सिद्धा ।। -बोध प्राभूत अधिकार, कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, आचार्य कुन्द कुन्द, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सन् १९६०, पृष्ठ ८७ । ३. बल सौख्य ज्ञान दर्शनानि चत्वारोऽपि प्रकटा गुणा भवति । नष्टे धाति चतुष्के लोका लोकं प्रकाशयति ॥ --भाव पाहुड, अष्ट पाहुड, कुन्द-कुन्दाचार्य, पाटनी दिगम्बर जैन प्रन्यमाला, मारोठ, राजस्थान, पृष्ठांक २६४ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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