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________________ ( ७) जिनसेनाचार्य थे । पार्वाभ्युदयकान्यके सोंकी अन्तिम पुष्पिकाओं में अमोघवर्षको 'परमगुरु' लिखा है और अन्यकी अन्तिम प्रशस्तिमें उनके राज्यके सर्वदा बने रहनेकी कामना की गई है। और गणितसारसंग्रहके छठवें पद्यमें नृप तुगदेवके धर्मशासनकी वृद्धिकी कामना की गई है३ । इतना ही नहीं, किन्तु ग्रन्थके प्रारंभिक मंगलपद्योंके बाद ५ पद्योंमें राजा अमोघवर्षके जैनदीक्षा लेनेके बाद उन्हें प्राणिवर्गको सन्तुष्ट करने तथा निरीति निरवग्रह करने वाला स्वेष्टहितैषी बतलाया गया है । साथ ही पापरूपी शत्रुओंका अनीहित चित्तवृत्तिरूपी तपोग्निमें भस्म होनेका समुल्लेख है और वे काम-क्रोधादि अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेके कारण प्रवन्ध्यकोप हो गए थे। तथा सम्पूर्ण जगतको वशमें करनेवाले और स्वयं किसीके वशमें नहीं होने वाले अपूर्वमकरध्वज भी थे। राजमण्डलको वश करनेके अतिरिक्र तपश्चरण द्वारा संसारचक्रके परिभ्रमणको विनिष्ट करने वाले रत्नगर्भ (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रयक धारक) ज्ञानवृद्धि और मर्यादावज्रवेदी द्वारा यथाख्यात चारित्ररूपी समुद्रको प्राप्त हुए थे। इन सर्व उल्लेखोंमें राजा अमोघवर्षकी मुनिवृत्तिका चित्र अंकित किया गया है । राजा अमोघवर्षके विवेकपूर्वक राज्यत्याग करनेका उल्लेख उन्होंने स्वयं अपनी 'रत्नमाला' के अन्तिम पद्यमें किया है। जिसमें उनका विवेक पूर्वक राज्य छोड़कर अन्तिम जोवन जैनमुनिके रूपमें बितानेका स्पष्ट उल्लेख किया गया है। प्राचार्य महावीरने अपना यह ग्रन्थ कब बनाया इसका स्पष्ट उल्लेख अन्य प्रशस्तिमें नहीं है । हो सकता है कि ग्रंथका समाप्ति-सूचक कोई १ 'इत्यमोघवर्ष परमेश्वर परमगुरु श्रीजिनसेनाचार्य विरचिते भेषदूत वेष्टिते पार्वाभ्युदये भगवत्कैवल्य वर्णनं नाम चतुर्थः सर्गः ।। २ 'भुवनभवतुदेवः सर्वदामोघवर्षः ।' ३ विध्वस्तैकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवादिनः । देवस्य पतुगस्य वर्षों तस्य शासनम् ॥
SR No.010101
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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